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सवार एव सफलता
1181 ही भेजे। उनकी ऐसी पृष्ठभूमि के कारण मुझे भी परेशानी हुई। पर मेरे प्रवचन, उसकी सच्चाई के कारण यहाँ लगभग ५० लोग तीर्थंकर वाणी के पाठक बने। और यह सिलसिला चलता रहा। आज ३५० से अधिक हमारे पाठक हैं। पिछले १४ वर्षों से पत्रिका उन्हें नियमित प्राप्त हो रही है।
सन् १९९६-९७ में अपनी भविष्य में प्रारंभ होनेवाली अस्पताल का प्रोजेक्ट लेकर सर्वप्रथम टेक्सास स्टेट के डलास शहर में गया। वहाँ वेको निवासी श्री किरीट दफ्तरी जी से चर्चा हुई और सर्वप्रथम उन्होंने ८००० डॉलर तत्पश्चात ५००० डॉलर देकर हमें प्रोत्साहित किया। ट्रस्टने उनके इस दान का सन्मान करते हुए अस्पताल में गायनेक विभाग को 'दफ्तरी गायनेक विभाग' नाम दिया। १९९८ में अस्पताल का विधिवत प्रारंभ किया और अमरीका से हमें एक्स-रे विभाग, सर्जरी विभाग, ई.एन.टी. विभाग, ऑर्थोपेडिक विभाग, दंत विभाग, पेथॉलोजी विभाग हेतु एवं फैंको मशीन, अद्यतन माइक्रोस्कॉप, ऑटोरिफ्रेक्टर मशीनों के लिए दान प्राप्त हुआ। इन विविध दाताओं के नाम विभागों के साथ जोड़े गये। आँख एवं होम्योपेथी को अवश्य भारत से दान प्राप्त हुआ।
इसीप्रकार हमने फंड एकत्र करके गरीबों के सहायतार्थ “तिथियोजना" का प्रारंभ किया। जिसमें ३०० डॉलर या ११००० की राशि निश्चित की। इसके अंतर्गत बुजुर्गों की पुण्यतिथि, स्वयं की विवाहतिथि, बच्चों की जन्मतिथि या अन्य किसी भी निमित्त से तिथि लेने की योजना बनाई। तिथि के दिन उनकी ओर से रोगियों को अधिक राहत देने की योजना बनी। इस योजना में लगभग २०० तिथिदाताओं में से लगभग १५० भाई-बहन अमरीका के हैं। इसप्रकार यदि देखें तो इन ७-८ वर्षों में अमरीका से लगभग १ करोड़ रू. से अधिक की राशि प्राप्त हुई। इसी श्रृंखला में वर्ष २००६ में पर्युषण पर्व के दौरान टेम्पा (फ्लोरीडा) में आमंत्रित था। पुराने मित्र श्री कमलेश शाह एवं उनकी धर्मपत्नी अवनी बहन से मुलाकात हुई। उनके पूछने पर अस्पताल की स्थिति एवं भविष्य में इन्डोर विभाग प्रारंभ करने की चर्चा की। साथ ही ५० लाख रूपयों की आवश्यकता बताई। तुरंत ही अवनी बहनने कमलेशजी की सलाह पर २५ लाख रूपयों की राशि स्वीकृति की। अगले वर्ष इन्डोर विभाग उनके नामसे प्रारंभ होगा।
कुछ खट्टी-मीठी यादें १) मित्र द्वारा मकान हड़प लेना हम लोग नागौरी चॉल में रहते थे। वहीं हमने एक दूसरा मकान खरीदा था कि परिवार को सुविधा रहेगी उस । समय मैं प्राथमिक शिक्षक था। वहीं एक अध्यापक जो मेरे सहअध्यापक थे उनका नाम था श्री------दुबे। । वे बनारस के थे। देखने में अति भोले-सरल पर अंदर से पूरे दुष्ट और काले। उन्होंने छुट्टियों में कुछ दिन को मकान चाहा। मैंने मैत्री भाव से बिना किराये के मकान दे दिया। जब छुट्टियाँ पूरी हुईं और हमें मकान की आवश्यकता हुई- हमने उनसे मकान खाली करने को कहा तो वे बहाने बनाने लगे। इतना ही नहीं जिस खाली कमरे में मैं जाकर सोता था उस पर रहस्यमय रूप से पथ्थर फिंकवाने लगे और भय का वातावरण पैदा करने । लगे। उन्होंने कुछ उत्तर प्रदेश के गुंडो को भी अपने साथ कर लिया। दुःख की बात तो यह थी कि मेरे प्राथमिक शाला के गुरू और अब साथी अध्यापक वयोवृद्धश्री राजारामजी मिश्र, जिनकी सिफारिश से यह मकान उन्होंने दूबेजी को दिलवाया था- वे भी जाति के प्रवाह में बह गये और उन्होंने अपने वतन के होने के कारण दुबेजी की ही तरफदारी की। इससे बड़ी बात यह थी कि उस समय स्व. श्री बनारसी पहलवान जिनकी पूरे उत्तर भारतीयों ।