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________________ मन मा पूर्व सफलता की । जैन विद्वानों की उठा-पटक ___ जैसे-जैसे मैं जैन विद्वानों के संपर्क में आया तैसे-तैसे उनमें चलने वाली अविद्वत्ता पूर्ण राजनीति को देखा और मैं दंग रह गया। यहाँ उस पद के लिए ऐसी होड़ लगती है, जिसका कोई विशेष मूल्य नहीं होता। हमारे विद्वान जो अहिंसा, सत्य, समता, अपरिग्रह के उपदेश देते हैं वे गुटबंदी में सर्वाधिक रचे-पचे रहते हैं। एक दूसरे की निंदा करने में परम आनंद रस का रसपान करते हैं। इस संदर्भ में विशेष न लिखकर इतना ही कहूँगा कि हमारी इस उठा-पटक ने विद्वानों की अलग-अलग संस्थायें बना दी, और आज विद्वानों की चार-पाँच संस्थायें अपनी-अपनी ढफली से अपना-अपना राग गा रही हैं। उनके ये टुकड़े यह भी स्मरण कराते हैं कि ऐसे ही पद | लोलुप लोगों के कारण ही भगवान महावीर के अखंड धर्म में अनेक साम्प्रदायिक खंड हुए होंगे। हम विद्वानों का लाभ अनेक देश की संस्थाओ के कर्णधरों ने लिया। वे विद्वानों को अपना वाजिंत्र समझते रहे और उनके कंधों पर बंदूक रखकर आपस में लड़ते रहे। भोला विद्वान इन कूटनीति से रंगे हुए संस्थाओं के पदाधिकारियों की चाल 1 में फँस गया और परेशान हो गया। कभी-कभी तो इनके इस रवैये को देखकर लगता रहा कि मैं अपने नाम पर । विद्वान होने का सिक्का न लगवाता तो अच्छा था। विद्वान अनेक प्रसंगों पर समाज में प्रवचनार्थ जाते हैं। एक ओर हम विद्वान विद्याके प्रचार का दंभ भरते हैं । परंतु विदाई के लिफाफे की रकझक करके अपनी सारी प्रतिष्ठा को निंदा में बदल देते हैं। तब लगता है हम । विद्वान नहीं कोई धर्म के ठेकेदार हैं जो ठेकेदारी वसूल कर रहे हैं। ऐसे अनेक प्रसंग हैं पर यह तो एक छोटी सी । झलक ही प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं भी इन सबका सहभागी और दोषी रहा हूँ। इसका यही प्रायश्चित होगा कि इन सभी संस्थाओं से निवृत्त होकर लेखन और आत्मचिंतन में लगें। मनियों में व्याप्त शिथिलाचार और गुटबंदी मैंने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदाय के साधुओं को निकट से देखा और जाना है। इसमें भी दिगम्बर साधुओं को अधिक जाना समझा है। दुःख इस बात का है कि स्वयं को निर्ग्रन्थ अर्थात् सभी ग्रंथियों से मुक्त मानने वाले यह साधु अपने आचरण पर दृढ नहीं रह पाये। पहली बात तो वे आत्मवाद में स्थिर होने की जगह पंथवाद में बँट गये। १३ और २० का चक्कर उन्हें उलझाये रहा। हमारे साधुओं का देखा जाये तो अध्ययन बहुत ही कम रहा। कुछ ही ऐसे साधु और साध्वियाँ हैं जिन्होंने वास्तव में मुनि और आर्यिका वेश को सार्थक किया, बहुत कुछ लिखा और विद्वान और विदुषी के रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनकी साधना और चरित्र अनुकरणीय रहा। परंतु ऐसे मुनि और आर्यिकायें ऊँगली पर गिनने जितने ही रह गये हैं। चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागर महाराज की परंपरा में साधुओं ने अपने को जोड़ा अवश्य परंतु वे उनके गुणों को आत्मसात नहीं कर पाये और अलग-अलग गुट बनने लगे। आज सभी संप्रदायों में गच्छ, गण और परंपरायें कुकरमुत्ते, मेंढकों की तरह फूट रही हैं। आ. तुलसी के तेरह पंथ को छोड़कर कहीं एक छत्र में साधु दिखाई नहीं देते। हमारे यहाँ तो इतने आचार्य हो गये हैं कि क्या लिखे? कुछ तो वास्तविक गुरू द्वारा आचार्य बनाये गये, कुछों । ने गुरू पर दबाव डालकर आचार्य पद प्राप्त किया और कुछ स्वयंभू आचार्य पद पर आसीन हो गये। इन मनियों । ने अपने-अपने गुट बना लिये और कषाय से मुक्ति का दावा करने वाले परस्पर के कषाय में ही डूबते गये। ! जिन लोगों ने संसार की मोह-माया को छोड़ने का संकल्प कर दीक्षा धारण की थी वे लोग करोड़ों रूपये के । मठ, गिरि और स्थानक बनाने लगे। करोड़ों और अरबों की योजनायें भोले श्रावकों को पुण्य और स्वर्ग का ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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