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मैंने संपादन किया। इसी प्रकार पं. कमलकुमारजी शास्त्री एवं पं. फूलचंदजी पुष्पेन्दुजी के साथ ‘सचित्र भक्तामर रहस्य' एवं 'भगवान महावीर चित्र शतक' ग्रंथ का संपादन किया। पं. कमलकुमारजी द्वारा भक्तामर के विविध भाषाओं में १२५ प्राप्त अनुवादों का संकलन 'भक्तामर भारती' का संपादन किया। जिसकी विस्तृत भूमिका लिखी जिसका प्रकाशन खेमचंद मोतीलाल ट्रस्ट सागर द्वारा कराया गया। इन्हीं के द्वारा संकलित पू. गणेशप्रसादजी वर्णी के पत्रों का भी संपादन करने का मौका मिला।
सेठ मोतीलालजी एक अच्छे विचारक और लेखक है। उनकी डायरीओं से उत्तम विचारों का संकलन कर 'चिंतन की गलियों' से पुस्तक का संपादन किया और भूमिका लिखी। इसी श्रृंखला में पू. आ. विरागसागरजी के कर्मवाद पर प्रकाशित ग्रंथ की भूमिका लिखने का गौरव प्राप्त हुआ।
पू.ग.आ. ज्ञानमतीजी के ६०वें जन्मदिन पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ एवं उनके ५०वें दिक्षा समारोह पर प्रकाशित गौरव ग्रंथ के संपादक मंडल में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पू,गणधराचार्य, पू. कुन्थुसागरजी, पू. आ. गुणधरनंदीजी, पू.आ. कनकनंदीजी के ग्रंथों का प्रकाशन, संकलन, संशोधन का कार्य संपन्न किया।
जैन विद्वान कैसे बना? ____ मैंने खुरई गुरुकुल के ७-८ महिने के धार्मिक अध्ययन 'रत्नकरंड श्रावकाचार' के अलावा कहीं किसी
पाठशाला में विधिवत जैनधर्म का अध्ययन नहीं किया है। यह सबकुछ मेरी आंतरिक जिज्ञासा से हुआ है। एक | छोटी सी घटना इसमें कारणभूत रही। जब मैं छोटा था। गोमतीपुर मंदिर में जब कभी कोई पंडितजी आते थे, मैं । उनके प्रवचन सुनता और एकबार मैंने कुछ प्रश्न किया तो उन्होंने झड़कते हुए कहा था कि 'तुम नये लोडे धर्म
को क्या जानो?' बस यह बात मुझे चुभ गई और मैंने संकल्प किया कि एकदिन पंडित बनकर दिखाऊँगा। इसी श्रृंखला में मैं थोड़ा बहुत जैनधर्म के अध्ययन की ओर मुड़ा। स्थानिक मंदिर में पुस्तकें पढ़कर प्रवचन भी करने लगा। इससे मेरी रूचि भी बढ़ी। लेकिन सबसे बड़ा मोड़ सन् १९६६ में तब आया जब मैं सूरत में कॉलेज के साथ-साथ श्री कापड़ियाजी के साथ जैन मित्र में कार्य करने लगा। वहाँ पूरा ग्रंथ भंडार और वहाँ अनेक जैन सिद्धांत ग्रंथों को पढ़नेका मौका मिला। प्रथमानुयोग के शास्त्रों को सबसे अधिक पढ़ा क्योंकि उसमें कथाओं के माध्यम से सिद्धांतों को समझाया गया था। इसीके कारण मैं कुछ विद्वानों के संपर्क में भी आया। मेरी यह लगन बढ़ती गई और भावनगर में आने के पश्चात मेरी रूचि वृद्धिंगत हुई। धीरे-धीरे प्रवचनों के लिए आमंत्रित होने लगा और इससे पढ़ना एक प्रकार से आवश्यक हो गया। मैं दिन-प्रतिदिन अधिक पुस्तकें पढ़ने लगा। बंबई की और अन्य स्थानों की व्याख्यान मालाओं में प्रवचनार्थ जाने के लिए दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों के ग्रंथों का। अवलोकन करने का मौका मिला। जब १९८० से दशलक्षण में प्रवचनार्थ जाने लगा तब तो अध्ययन और भी अधिक करने लगा। इसके साथ ही गोष्ठियों में शोधपत्र पढ़ने के निमित्त से भी अध्ययन में तेजी आई। इसके साथ ही साथ मैं पं. बाबूलालजी जमादार का भी आभार मानता हूँ उन्होंने मुझे शास्त्रि परिषद का सदस्य बनाया। इन दिग्गज विद्वानों के बीच मैं लघुता ग्रंथि का अनुभव न करूँ अतः निश्चित रूप से शास्त्रों का पठन पाठन करता ताकि कम से कम इनकी बात तो समझ सकूँ इस प्रकार मैं धीरे-धीरे जैनधर्म के सिद्धांतों को समझने का प्रयत्न करने लगा। इसी संदर्भ में मैंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं और परिणाम स्वरूप मैं अपनी आंतरिक रूचि और श्रद्धा के कारण जैनधर्म के प्राथमिक ज्ञान को प्राप्त कर सका और देश के विद्वानो में कुछ पहिचान बना सका। यद्यपि जब मैं अपना जैन विद्वान के रूप में मूल्यांकन करता हूँ तो मुझे लगता है कि मुझे तो अभी कुछ भी नहीं आता। यह है मेरे जैन विद्वान बनने की कहानी और विकास की यात्रा।