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संघर्ष पतं सफलता की कहानी
1 737 पंचरंगी संस्कृति विकसित हुई है। (५) जनतंत्र अत्यंत मजबूत है। (६) आर्थिक सम्पन्नता एक तो लोगो की कार्यक्षमता के कारण दूसरे प्रकृति प्रदत्त जलवायु के कारण भी है। बारह महिने जल, घने जंगल, अधिक गरमी न होना, प्रदूषण न होना आदि भी प्रगति के मूल कारण हैं। 'खूब कमाना खुब खर्च करना' यहाँ का सत्र बन गया है।
धार्मिक प्रवचन श्रृंखला प्रवचन की यह श्रृंखला वैसे तो लगभग १९५६ से चल रही थी। मैं १९५६ में मैट्रिक पास हुआ था। हमारे गोमतीपुर के मंदिर में किसी विद्वान को बुलाने के सुविधा नहीं थी। पूरी समाज में मैं अकेला मेट्रिक था अतः लोगों ने दशलक्षण पर्व में शास्त्र पढ़ने का आदेश दिया। मुझे भी शौक तो था ही सो रात्रि में शास्त्र पढ़ता। सविशेष दशधर्म दीपक के दशधर्म के पाठ पढ़ता। थोडा बहुत समझाता यद्यपि मैं भी जैनधर्म में विशेष कुछ नहीं
जानता था। खुरई गुरूकुल के संस्कार अवश्य सहायक बनते थे। यह सिलसिला १९६३ तक चला। १९६३ से । १९६८ तक बाहर रहने से सिलसिला टूट गया। सन् १९७२ से भावनगर में स्थायी हुआ। वहाँ १९७२ से ७६। ७७ तक हुमड़ के डेला में दिगम्बर जैन मंदिर में दशलक्षण में प्रवचनार्थ बुलाया जाने लगा। इसीके साथ भावनगर की जैन संस्थाओ में भी प्रवचनार्थ आमंत्रित होने लगा।
सन् १९७९ में पहली बार वर्तमान झारखंड के डाल्टनगंज शहर में आमंत्रित हुआ। यह दशलक्षण पर्व में पूरे । १० दिन के लिए पहली बार जाने का प्रसंग था। जब वहाँ स्टेशन पर पहुँचा तो आठ-दस लोग अगवानी के लिए । आये। १० दिन बड़ा ही उत्सव व उत्साह का वातावरण रहा। यहाँ सभी घर खंडेलवाल जैनों के हैं। मुझे श्री
राजकुमारजी जैन (लड्डूबाबू) के यहाँ ठहराया गया जो वहाँ के बड़े व्यापारी, उत्साही, युवा कार्यकर थे। | खंडेलवाल समाज खिलाने-पिलाने में बड़ा ही उदार एवं आग्रही होने से भूख और पेट से ज्यादा खिलाते। सूखे मेवे
मिष्टान खूब होता। ऐसे गरिष्ट भोजन के कारण क्या स्वाध्याय हो सकता है? दिन को खूब सोते। आखिर मैंने वहीं यह नियम लिया कि पर्युषण में तला हुआ, सुखे मेवे आदि नहीं लूँगा। . ___ सन १९८० में दिल्ली के सरोजीनी नगर में आमंत्रित था। वहाँ श्री प्रेमसागरजी के वहाँ रुका हुआ था। वे एक बड़े सरकारी अफसर थे और अति सरल और उदार। दिल्ली में प्रायः अग्रवाल समाज अधिक है। धार्मिक क्रियाकांड में ये लोग खूब रूचि लेते हैं पर एकासन या उपवास कम ही करते हैं। रात्रि में दूध और फल भी ले लेते हैं। मुझे आश्चर्य तो उसदिन हुआ जब सुगंध दशमी के दिन चैत्यवंदन से लौटते समय शाम को लालमंदिर के परिसर में लोगों ने सायंकालीन भोजन किया। जिसमें अधिकांश के टिफिन में आलू के परोठे थे। मुझे बड़ा धक्का लगा। रात्रि को लोगों को धर्म की भाषा में डाटा, फटकारा। यह सिलसिला चलता रहा और इसी श्रृंखला । में भोपाल, रतलाम, नागपुर, जबलपुर, कानपुर, सागर, उदयपुर, अहमदाबाद, मुंबई कई स्थानों पर दशलणो में जाता रहा हूँ। मेरा इस प्रवचन श्रृंखला में गौरव इस बात का रहा कि मैं दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी संप्रदायों द्वारा आयोजित व्याख्यानमालाओं में आमंत्रित होता रहा हूँ। इसी श्रृंखला में १९९०-। ९१ में नैरोबी, १९९४ से २००६ तक श्वेताम्बर पर्युषण, दिगम्बर दशलक्षण, महावीर जयंति और जैना के । कन्वेन्शनो में निरंतर जाता रहा हूँ।
इन प्रवचनों के उपरांत साधु भगवंतों के द्वारा आयोजित गोष्ठियों में पिछले २० वर्षों से जाकर अपने शोधपत्र प्रस्तुत करता रहा हूँ। कई गोष्ठियोंके सत्रों की अध्यक्षता की, संचालन किया तो कई गोष्ठियों का पूर्ण संयोजन करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।
जैन साहित्य समारोहों में गोष्ठियों में पंचकल्याणकों में तो यह अवसर मिला ही पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ।
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