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बंबई का यह मंच जिसमें प्रायः वक्ता को एकबार बुलाने के पश्चात, दूसरी बार जल्दी नहीं बुलाते । नित नये 1 वक्ताओं को ही आमंत्रित किया जाता है। पर मेरा यह सौभाग्य रहा कि ६-७ वर्षों तक निरंतर आमंत्रित होता
रहा। इससे बंबई के अनेक गण्यमान्य लोगों से परिचय व आत्मीयता बढ़ी। बंबई के उपरांत अहमदाबाद में गुजरात युवक केन्द्र की ओर से आयोजित व्याख्यानमाला में नियमित प्रवचन देता रहा। दश लक्षण में भी विविध नगरो में व्याख्यान के साथ णमोकार मंत्र के शिविर आयोजित करता रहा।
शिक्षण जगत की राजनीति
शिक्षण जगत की अपनी ही एक राजनीति होती है । मैं १९७२ में भावनगर की वलिया आर्ट्स एण्ड महेता कॉमर्स कॉलेज में विभागाध्यक्ष बनकर आया था उसका उल्लेख कर ही चुका हूँ। हम सात-आठ प्राध्यापक नये ही थे। जैसाकि स्वाभाविक रूप से होता है नये और पुरानों का अलग-अलग गुट सा बन जाता है। इसमें वह इर्ष्या भाव भी काम करता है जिसके कारण पुराने व्याख्याता जिन्हें पदोन्नति नहीं मिल पाती है। दूसरे प्रादेशिकता भी काम करती है। सौराष्ट्र में गुजरात के लोगों का समावेश कम ही हो पाता है। फिर अन्य प्रदेशों की तो बात ही क्या? मैं तो गुजराती भी नहीं था । पर गुजरात में ही जन्मा, बड़ा हुआ, पढ़ालिखा था। दूसरे सौराष्ट्र में अमरेली व राजकोट में तीन वर्ष काम कर चुका था। अतः विशेष तकलीफ नहीं हुई। दूसरे मेरे स्वभाव के कारण मेरा मित्र सर्कल बड़ा ही होता गया। इसका कारण यह भी था कि मैं सबसे अधिक सीनियर था। विभाग के अध्यापकों से भातृवत् व्यवहार करता था। उनकी स्वतंत्रता की कद्र करता था। थोड़ा सा शायराना मिज़ाज था, लेखन का शौक था इन सबसे अधिक प्रेम मिला। तदुपरांत शामलदास कॉलेज के अध्यक्ष डॉ. मजीठियाजी, उनकी धर्मपत्नी डॉ. कृष्णाबेन एवं श्री जयेन्द्रभाई का विशेष समर्थन था । इसीके साथ श्री महावीर जैन विद्यालय में गृहपति होने के कारण शहर में समाज के लोगों से भी परिचय बढ़ा। अतः सद्यः लोकप्रियता लोगों को अच्छी नहीं लगी। पर ऐसे लोग थोड़े ही थे ।
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कॉलेज में हम सिनियर प्राध्यापकों और व्याख्याताओं की मैत्री अधिक दृढ़ होती गई । मैं भी भावनगर में स्थिर होने का मन बना चुका था। बच्चे भी अब बड़े हो रहे थे। स्थान भी अच्छा था। वातावरण शांत था । अतः पूर्ण स्थायित्व की दृष्टि से यहाँ काम करता था । हमारे सर्कल में प्रो. शशीभाई पारेख, प्रा. भरतभाई ओझा (बाद में । जो कुलपति भी हुए), प्रा. शरद शाह, प्रा. श्री पटेल, श्री ए. पी. बंधारा आदि प्रमुख थे। कॉलेज की एक घटना १९७२-७३ में घटी जिसने स्थायी रूप से अध्यापकों को दो दलों में विभाजित कर दिया। मैंनेजमेन्ट से भी संघर्ष हुआ । घटना एक सिनियर अध्यापक एवं एक अध्यापिका के प्रेम प्रकरण के संबंध में थी । इस घटना से अध्यापकों का मतभेद, मनभेद में बदला और अंत तक चलता रहा; कॉलेज में सदैव दो दल बने रहे।
कॉलेज में स्थायित्व
१९७४ में कॉलेज में दो वर्ष पूर्ण होने को थे । हमारा ग्रुप जींजर ग्रुप था। सभी मस्त मौला- सत्य के लिए सदैव संघर्षरत । कॉलेज में सिनियोरिटी का प्रश्न था । श्री नर्मदाशंकर त्रिवेदी के रिटायर्ड होने पर श्री तख्तसिंहजी परमार आचार्य हुए। मैनेजमेन्ट अपनी नीति के अनुसार बाँटो और राज्य करो की नीति अपना रहा था। इधर हम लोगों के दो वर्ष पूर्ण हो रहे थे । अतः नियमानुसार सबको स्थायी करना जरूरी था । यद्यपि उस समय प्रोबेशन पर लगे अध्यापकों को सरकार से कोई विशेष रक्षण नहीं था। पंद्रह मार्च को ऐसे अध्यापकों पर तलवार लटकती ।
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