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खूबसूरत जगह । इस इन्टरव्यू में सफल भी रहा और उसी समय भावनगर के पास महुवा कॉलेज का इन्टरव्यू कॉल भी आया। चूँकि मैं वहाँ गया ही नहीं। भगवान ने मेरी तीन जगह की बात जैसे पूरी की।
मेरे मन में दुविधा थी कि कपड़वंज जाऊँ या सूरत रहूँ। जोषी साहब के एहसान से दबा था। मेरा मन सूरत के लिए मचल रहा था। आखिर मैंने जोषीजी से पूरी बात की। उन्होंने सरलता से सूरत जाने की सम्मति दी। इस तरह सूरत के नवयुग कॉलेज जो इसी वर्ष प्रारंभ हो रहा था। उसमें नियुक्ति हो गई और १४ जून १९६६ को सूरत पहुँचा ।
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यहाँ एक छोटा सा प्रसंग लिखना आवश्यक लगता है । १९६६ में जब मैं राजकोट था उस समय पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ गया था। जामनगर पर बंबमारी हुई थी। लोगों में अफरा-तफरी मचने लगी। वैसे भी हम गुजरात के लोग धबड़ाते जल्दी हैं । पर गुजरात सरहदी राज्य होने से निड़र भी बने रहते हैं। राजकोट के अनेक लोग अपने गाँव जाने लगे। मुझे भी अहमदाबाद से बार-बार लौटने के फोन आते। पर मैंने यही कहा कि यह विज्ञान का युग है। यह बंब अहमदाबाद पर भी गिर सकता है। अतः मैं वहीं रहा। रात्रि के अंधकार पट का भी एक रोमांचक अनुभव होता है जो वह यहाँ पर प्राप्त हुआ। दिनरात रेड़ियों से गरमा-गरम खबरें सुनते। हमारे बहादुर सैनिकों के कारनामे हम में भी उत्साह भरते। इसी समय मैंने प्रधानमंत्री स्व. श्री लालबहादुर शास्त्री के आह्वान पर एक वर्ष के लिए चावल खाना छोड़ दिया। सूरत में
सूरत आने से पूर्व जब मैं इन्टरव्यू के लिए आया था उस समय 'जैन मित्र' साप्ताहिक में श्री मूलचंदजी कापड़िया के साथ पं. ज्ञानचंद जैन स्वतंत्र संपादन का कार्य करते थे। उन्हीं के पास रुका था । मैं जब १४ जून को सूरत पहुँचा तो पता चला कि स्वतंत्रजी जैनमित्र से त्यागपत्र देकर कल ही अपने वतन बासौदा जा रहे हैं। उन्हें सभीने खूब समझाया पर वे न माने। या यों कहूँ कि सूरत में उनका अंतिम दिन और मेरा पहला दिन था। हालाँकि बाद में उनसे मिलने पर और अन्य लोगों से सुनने पर पता चला कि सूरत छोड़कर उन्हें पछतावा हुआ। जिस भावना से वे बासौदा आये थे। वह पूरी न हो सकी। उल्टे बच्चे जो अंग्रेजी मीडियम से अच्छी तरह पढ़ाई कर रहे थे— होनहार थे – उनको भारी नुकशान हुआ ।
सूरत में नवयुग आर्ट्स एन्ड सायन्स कॉलेज का इसी वर्ष प्रारंभ हुआ था। सूरत शहर से तापी नदी के उस पार रांदेर रोड़ पर निजी भवन में कॉलेज का प्रारंभ हुआ था। उस समय तापी नदी और रांदेर के लगभग ७८ कि.मी. तक के रास्ते में एकमात्र यही बिल्डींग थी। बाकी पूरे खेत या जंगल था। वातावरण बड़ा ही रमणीय एवं प्राकृतिक था। श्री दिनकरभाई वशी साहब इसके ट्रस्टी और प्राचार्य थे । वे गणित के जानेमाने विद्वान थे। शिस्त के चुस्त पालक थे । वे थोड़े से तानाशाह भी थे। पर व्यवस्था बड़ी ही उत्तम रखते थे। नया कॉलेज होने से सभी लोग नये थे अतः मैत्री भी जल्दी हो गई । यहाँ स्टाफ में अंग्रेजी विभाग में प्रसिद्ध नाटककार डॉ. ज्योति वैद्य और अभिनेता संजीव कुमार के चचेरे भाई प्रो. जरीवाला थे । यहाँ हेडक्लार्क में मि. संपत थे जो वशी साहब के रिश्तेदार थे। उनका वर्चस्व कॉलेज में आचार्य से कम नहीं था ।
एन. सी. सी. ट्रेनिंग की पूर्व भूमिका
यहाँ श्री किशोर नायक जो मेरे अच्छे मित्र बन गये थे- पी. टी. टीचर थे। और एन.सी.सी. में सेकण्ड लेफ्टिनेन्ट थे। उस समय कॉलेज में एन.सी.सी. अनिवार्य थी । संख्या की दृष्टि से दूसरे ऑफिसर की आवश्यकता !