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। सरकारी कॉलेज। यहाँ मकान की समस्या तो थी ही। यहीं परिचय हुआ धर्मेन्द्रसिंहजी कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष
डॉ. सुदर्शन मजीठियाजी एवं विभाग के अध्यापक श्री घनश्याम अग्रवाल, साथ ही समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष श्री निर्भयरामजी पंड्या के साथ। अच्छी दोस्ती हुई और एक मकान जागनाथ प्लॉट में ढूँढा । जहाँ मैं, डॉ. मजीठीया और निर्भयराम रहने लगे। दोपहर में बाहर से टिफिन मंगाते और सब लोग मिलकर खाना खाते। बाद __ में मैंने प्रहलाद प्लोट में अलग से मकान लिया और पत्नी तथा चार वर्ष के पुत्र राकेश के साथ वहाँ रहने चला गया। ___ यहाँ राजकोट में डॉ. इन्दुभाई व्यास जो प्रायः सभी कॉलेजों के अध्यापकों के गोड़फाधर या मार्गदर्शक थे। उनके यहाँ रोगियों से अधिक प्राध्यापक ही आते थे। शाम को जैसे उनका दवाखाना सेनेट हॉल बन जाता। कॉलेज के चुनाव, सेनेट के चुनाव सबकी रूपरेखा यहीं बनती। लगता जैसे यह दवाखाना नहीं, शैक्षणिक गतिविधियों का केन्द्र है। डॉ. मजीठीया आदि के कारण मैं भी उनके दरबार का अंग बन गया। डॉ. इतने भले थे कि किसीके भी सुख-दुःख में तन-मन-धन से सहायक होते। मेरे तो वे जैसे गार्जियन ही बन गये थे। घर पर सामान से लेकर दवा आदि वे वैसे ही करते थे जैसे कोई अपने छोटे भाई के परिवार की मदद करता हो। मुझे उनका बड़ा सहारा था। ___ हमारे कॉलेज का अभी नामकरण नहीं हुआ था। मात्र आर्ट्स कॉलेज नाम था। बाद में इसका नाम दाता के नाम पर वीराणी आर्ट्स कॉलेज हुआ। यह कॉलेज उस समय राष्ट्रीय शाला के मकान में सुबह ७ से ११ तक लगता था। इसके आचार्य थे श्री हरसुखभाई संघवी जो राजकोट के माने हुए कानून के अध्यापक एवं रोटरी क्लब के अध्यक्ष थे। पक्के खाटीवाटी थे। कॉलेज में खाटी पहनना उन्होंने अनिवार्य किया था। इतना ही नहीं संघवी साहब वर्ष में एकदिन सभी को सर्व धर्म के स्थानों की वंदना हेतु ले जाते। वह भी बिना जूता-चप्पल पहने। यह भी एक मनोतरंग थी उनकी। उनका स्वभाव तानाशाह जैसा था। वे अध्यापकों का उचित सन्मान भी नहीं कर । पाते। कान के कच्चे होने से अपने दो-तीन कथित विश्वसनीय अध्यापकों की बात ही मानते। और दूसरे अध्यापकों पर जासूसी कराते। हम चार-पाँच नये लोग, नई उम्रके लोग अच्छे मित्र थे। वह उन्हें नहीं सुहाता था। उन्हें सदैव यही लगता था कि हम उनके विरुद्ध कुछ प्लान बना रहे हैं।
मज़ाक जो भारी पड़ा
एकबार अपनी मज़ाकिया आदत के कारण मैंने कॉमन रूम में कहा कि 'खादी पहनने से बड़ा फायदा है। यदि । कोई काम न हो तो बैठे-बैठे खादी के छछने निकालते रहो। इस बात को उनके चमचों ने मिर्च मसाला लगाकर संघवी साहब से की। परिणाम हुआ १५ मार्च को मुझे सेवा से मुक्त कर दिया गया। उस समय प्राईवेट कॉलेजो । में १५ मार्च को किस पर गाज गिरेगी इसका भय रहता था। सविशेष तो प्रोबेशन पर नियुक्त होनेवाले । अध्यापकों को होता था। सरकार में कोई सुनवाई नहीं थी। अतः संघवी साहब की कृपा से मैं १५ मार्च को पुनः । बेकार हो गया। मुझे बड़ा गुस्सा आया। मैंने उनकी उस नोटिस को उन्हीं की चैम्बर में जाकर फाड़ा और कहा कि ! इसे अपनी..... में डाल देना। वातावरण बड़ा तंग हो गया। बेचारे साथी अध्यापक मित्र भी डरे हुए थे। उन्होंने । अलग एक होटेल में छिपकर मुझे बिदाई दी। मैंने उस समय प्रिन्सिपल से कहा था कि “यदि एक बाप का होऊँगा । तो १५ जून से पूर्व तुझे तीन ओर्डर बता दूँगा।" पर कैसे ओर्डर पाऊँ यह भय लगा। पर शुभकर्मों ने मदद की। । मेरे अमरेली के साथी मित्र डॉ. जोषी साहब कपडवंज में प्राचार्य हो चुके थे। मैंने उनसे बात की। उन्होंने कुछ ही । दिनों में कपड़वंज कॉलेज की नियुक्ति का नियुक्ति पत्र दिया। उसी समय सूरत से भी इन्टरव्यू कॉल आया। सूरत