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________________ समाधएवं सफलता की कहान 1 29 एम.ए. की पुस्तकें तो खरीद ली थीं पर उनपर विविध विषयों के विवेचनों के संदर्भ ग्रंथ एक विद्यार्थी को । खरीदना सरल नहीं था। अतः हम चार-पाँच मित्र जिसमें श्री सुमन अजमेरी, श्रीमती शांताबेन कालुस्कर, श्री छाबड़ा जी, श्री जगदीश शुक्ल और मैंने एक ग्रुप बनाया। एक-एक व्यक्ति एक-एक लेखक की टीका या विवेचन की पुस्तक खरीदता। सब एक दूसरे को देकर पढ़ते इससे हम एक पुस्तक पर पाँच-पाँच टीकाग्रंथ पढ़ लेते। यह पढ़ाई पहले श्री सुमन अजमेरी के घर पर होती। इसके बाद सात-आठ महिने के बाद श्रीमती शांताबेन कालुस्कर के रायपुर के निवास पर होती। सबलोग पढकर आते, चर्चा करते इससे बहुत ही अच्छी स्पष्टता होती और विषय समझ में आ जाता। फिर उन चार-पाँच पुस्तको में से एक नोट तैयार होती। यह काम मुझे सौंपा जाता। मेरी विवेचना शक्ति व दृष्टि पहले से ही अच्छी थी अतः सभी पुस्तकों को पढ़कर उसपर मैं नोट लिखवाता। सबलोग नोट लिखते। एक कार्बन कोपी मेरे लिए भी बनाई जाती। दिसंबर जनवरी तक हमारे श्रेष्ठ नोट तैयार हो चुके थे। अप्रैल में परीक्षा थी। पाँच दिन के पाँच पेपर थे। हाईस्कूल से जहाँ नौकरी करता था कोई विशेष छुट्टी नहीं मिली। पाँच केज्युअल लीव लेकर परीक्षा दी। परीक्षा का माहौल भी बड़ा विचित्र था। यही तो जीवनभर का अंतिम वर्ष था जिसपर पूरे जीवन का आधार था। श्री सुमन अजमेरी सर्वाधिक तेजस्वी छात्र थे। वे प्रथम श्रेणी में आयेंगे ऐसा सबका विश्वास था पर वे परीक्षा में ड्रोप लेकर चले गये। हम लोगों का विश्वास भी डगमगाने लगा। ___ भाषा विज्ञान के पेपर की परीक्षा का प्रथम दिन ही निराशाजनक लगा। मैंने सोचा चलो सुमनजी की तरह ड्रोप ले लें। उस शाम पढ़ना भी बंद कर दिया। दूसरा पेपर दो दिन बाद था। जब यह पता मेरे प्राईमरी के सर्वाधिक हितैषी अध्यापक जो अब कॉलेज में प्राध्यापक थे- उन श्री रमाकांतजी को पता चला तो वे मेरे घर आये। मुझसे अधिक चिंतातुर वे लगे। उन्होंने मुझे खूब समझाया और प्रोत्साहित भी किया। उन्होंने जो मानसिक उपचार किया । वह मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ। उन्होंने बड़ा ही मानसिक प्रयोग करते हुए मुझसे कहा- 'अपने मन और आत्मा । से पूछो कि क्या मैंने इतना बड़ा कोई पाप किया है कि जिससे मेरी १६ वर्ष की महेनत निरर्थक हो जाये। यदि तुम्हारा मन कहें की हाँ पाप किया है तो परसों पेपर मत देना। और यदि मन कहे तो ऐसा कोई पाप नहीं किया तो पेपर देना।' मैंने वैसा ही किया और दिलसे आवाज आई कि ऐसा कोई पाप नहीं किया है। बस मैं जी-जान से पढ़ाई में जुट गया और सभी पेपर अच्छे गये और रिजल्ट में ५७ प्रतिशत अंक प्राप्त कर हिन्दी विषय लेकर एम.ए. करनेवाले लगभग ७० विद्यार्थियों में मेरा तीसरा स्थान रहा। विवाह ___ मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मुझे पढ़ने देरी से बैठाया गया था। कक्षा ११वीं में आते-आते मैं १७ वर्ष का । और स्कूल सर्टीफिकेट से १९ वर्ष का हो चुका था। शरीर स्वस्थ था अतः बड़ा लगता था। उस समय विवाह कम । उम्र में ही होते थे। मेरे दादाजी की इच्छा थी की पौत्र का विवाह उनके सामने ही हो जाये। मेरे पिताजी भी यही चाहते थे। उस समय समाज की दृष्टि से भी मैं शादी के योग्य हो चुका था। फिर जल्दी शादी होने से परिवार की प्रतिष्ठा भी बढ़ती थी। अतः मेरी सगाई की बातचीत चल रही थी। उस समय अहमदाबाद में गोलालारीय समाज के ४०-५० घर हो चुके थे। स्व. श्री रघुवरदयालजी गोरवालों के भाई स्व. रज्जूलालजी की पत्नी अपनी दोनों बेटियों के साथ श्री महावीरजी के महिलाश्रम में रहकर पढ़ती थी। उनकी बड़ी भतीजी जिसका नाम मक्खनदेवी था- उनकी सगाई के लिए मेरे पिताजी से मिले। पिताजी इस बारे में बड़े सरल थे। उन्हें इस बात की प्रसन्नता CookieON00000NRAORARIAheao.dira
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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