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________________ 1941 म तियों का वातायन साधुओं और सम्पन्न श्रेष्ठियों की ओर से प्रकट होती हैं। अधिकतर तो दानदाताओं के नामों, चित्रों, प्रशंसाओं | से भरी होती हैं। तीर्थंकर वाणी जैसी गिनी-चुनी दो चार पत्रिकाएँ ही ऐसी हैं जिनमें शोध-खोज तथा विशेष तात्विक, ऐतिहासिक जानकारी होती है। यदि इस दिशा में समन्वयात्मक प्रयास हो और वर्तमान विश्व की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक बदलती स्थितियों को ध्यान में रखकर जीवन-धर्म की प्रासंगिकता को उजागर करने में प्रबुद्ध वर्ग मिल जुलकर सहयोग करे तो कम से कम संख्या में अच्छी, पठनीय सामग्री देश | को प्राप्त हो सकती है। श्री शेखरचंदजी ने शिक्षा के क्षेत्र में, साहित्य सृजन के क्षेत्र में, बालकों में धर्मज्ञान फैलाने की दिशा में तो विपुल कार्य किया ही है, जन-स्वास्थ्य के लिए अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। यह मूल्यवान समाजसेवा है। ___ सेवाभावी विद्वान समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक होते हैं। इनका अभिनन्दन, । अभिवन्दन समाज की गरिमा और गुणग्राहकता को बढ़ाता है। श्री डॉ. शेखरचंद्रजी इसके सर्वथा उपयुक्त पात्र ! हैं। मेरी अनेक शुभकामनाएँ इनके साथ हैं और धीरेधीरे ही सही हम और निकट आयेंगे। ___ ऐसे कर्मठ ज्ञानी बंधुवर को पुनः पुनः आदरांजलि। श्री जमनालाल जैन (सारनाथ-वाराणसी) s क्या भूलूँ क्या याद करूँ यह जिन्दगी एक मेला है। मेले में सुदूर स्थानों से लोग आते हैं, एक दूसरे से मिलते हैं, बतियाते हैं, अपना सुख-दुख कहते हैं, दूसरों के सुनते हैं, तनावग्रस्त जीवन में कुछ पल हँसकर, गाकर व्यतीत करते हैं और फिर अपने घरौंदो में वापिस चले जाते हैं। फिर वही मशीनी दिनचर्या जहाँ 'रातें सुधियों के घर गिरवी, दिन दो रोटी ने छीन लिया। कभी-कभी इस मेले में ऐसे चुम्बकीय व्यक्तित्व भी टकरा जाते हैं जो अनायास हमें अपनी ओर खींच लेते हैं, ऐसे व्यक्ति जाने पर भी हमारे दिल से नहीं जाते। उनका गम्भीर चिन्तन, मधुर संभाषण, स्नेहिल, आत्मीयता पूर्ण व्यवहार, अविश्वसनीय क्रियाशीलता, उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण हमारे मन मस्तिष्क पर ऐसी गंभीर छाप अंकित करता है, जिसे समय की कोई धूल मिटा नहीं पाती। वे हमारी मनोभूमि पर ऐसा अंगद पाँव गड़ाते हैं जो टस से मस नहीं होता। वे अक्सर याद आते हैं और जब आते हैं तब आभास होता है कि स्मृतियों के वातायन से वासन्ती वयार का मंद सुगंध शीतल झोंका आया हो और हमारे तनाव से तप्त तन-मन को अपने स्नेह की आद्रता से अभिसिंचित कर गया हो। ऐसे गिने-चुने व्यक्तित्व हमारे स्मृति कोष की अमूल्य धरोहर होते हैं। __ ऐसे ही मेरे अग्रज तुल्य डॉ. शेखरचन्द्र जैन मेरे स्मृतिकोष के ऐसे देदीप्यमान रत्न हैं, जिससे मैं स्वयं को गौरवान्वित एवं सौभाग्यशाली अनुभव करती हूँ। __ आदरणीय भाई शेखरजी से मेरी पहली मुलाकात हस्तिनापुर में सम्मेलन में हुई थी। सम्मेलन के समापन पर पूज्य माताजी ने भगवान ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ के गठन की इच्छा प्रकट की। सर्वानुमोदित इस अच्छा के क्रियान्वयन का गुरुत्तर भार भाई शेखरजी के सुदृढ़ कंधों पर था। जिसका उन्होंने कुशलता से निर्वाह किया। __मैं अपनी कुछ महिला-मित्रों के साथ एक कोने में खड़ी यह नज़ारा देख रही थी। मन में विद्वत् संघ की सदस्यता ग्रहण करने की तीव्र लालसा थी। जब हम कुछ महिलाओं ने शास्त्रिय परिषद् की सदस्य बनने का प्रस्ताव रखा था तो प्रतिक्रिया नकारात्मक थी। भाई शेखरजी की पैनी निगाह से हम महिलाओं की उलझन छिपी न रह सकी। वे हम लोगों के समीप आकर बोले - इस 'तिरिया पल्टन' में क्या गुफ्तगूं हो रही है? मुझे उनके ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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