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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
जीवन
इस कुंडली के मोक्षत्रिकोण के स्थानों में ब्राह्मण राशियां हैं। गुरुचन्द्र का नवम पंचम योग, धर्म त्रिकोण के स्थान, समस्त शुभ ग्रहों की स्थिति तथा ग्रहों का पृथक-पृथक आठ स्थानों में रहना-यह धर्ममार्ग के प्रति प्रगाढ प्रेम, मोक्ष, धर्माचरण तथा प्रव्रज्या योग क
निष्कर्ष-.
यह कि चतुर्थस्थ शनि ने मातृ-पितृ सुख से वंचित किया। राहू और मंगल के कारण मामा से सुख-दुःख दोनों मिले। विद्याध्ययन में कितनी ही कठिनाइयां आई। जन्मभूमि से प्रायः जीवन का अधिकांश भाग दूर, अति दूर व्यतीत होना । धार्मिक ज्ञान की उपलब्धि, उत्तमगुरु की प्राप्ति, बाल्यावस्था में ही घर, माता, पिता तथा भाई-भगिनी आदि से वियोग इत्यादि सभी बातें इस दीक्षाकुंडली में स्थित ग्रहयोगों से फलित होती हैं । शरीर के विषय में भी ग्रहयोग ठीक-ठीक घटित होते हैं। चन्द्र से सप्तम अष्टम सूर्य मंगल केतु गुप्तांग में व्याधि करते हैं । तथा शस्त्रक्रिया करवाते हैं। एक से अधिक बार रोग से भाक्रांत होकर अंतिम स्थिति के निकट पहुंच जाना इत्यादि सभी बातें इस दीक्षाकुण्डली के संपूर्ण ग्रहयोगों से प्रगट होती हैं। अलम् विस्तरेण ।
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