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खण्ड
युगवीर आचार्यप्रवर श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी
की घाटियों का उतना अनुभव नहीं, जितने साधु-जीवन के उतार-चढाव उन के सामने आये । उन्होंने अपने संघर्षमय साधु-जीवन में हमेशां पतन की ओर ले जानेवाली प्रवृत्तियों का मुस्तैदी से सामना किया, धार्मिक प्रवृत्तियों की थपेडों से अपने जीवन की टक्कर लेते रहे । इसी का कारण है कि आज उन्हें वास्तविक साधुजीवन का अनुभव हुआ है। साधु-जीवन में क्या २ कठिनाइयां आती हैं और उन से मनुष्य किस प्रकार ऊंचा उठ सकता है-इन बातों के मार्ग ऐसे ही मुनि प्रशस्त कर सकते हैं, अन्य मनुष्य की वह ताकत नहीं। इन का संपूर्ण जीवन हमेशा त्याग व तपश्वर्या रूप जितने भी अंशों में रहा मानव-जीवन के लिये अवश्य अनुकरणीय है। आज भी वृद्धावस्था व रुग्णावस्था होने पर भी दिन भर वही अपनी धार्मिक यथेष्ठ प्रवृत्तियां चालू हैं । समाज का सारा भार व तमाम जवाबदारियां अपने कंधों पर लेकर चल रहे हैं, शारीरिक निर्बलतायें बढ़ रही हैं, फिर भी अपनी जिम्मेदारी अपने जीवन में निभा रहे हैं-यह समाज के लिये कम बात नहीं हैं ।
श्री यतीन्द्रसूरि का आजन्म चारित्र का तेज और प्रताप ऐसा है कि उनके सामने बोलने के लिये किसी की हिम्मत नहीं होती है। हर एक यही समझता है कि इन की स्वभाविक प्रकृति बड़ी ही तेज है, किंतु वास्तविक इस में रहस्य यही है कि वे जो कुछ कहते हैं मनुष्य के मुख पर स्पष्ट कहते हैं, और जो स्पष्ट कहनेवाला व्यक्ति होता है उस की प्रकृति हमेशां तेज मालूम होती है। उनके पेट में पाप कुछ नहीं होता है। आप दो मिनिट के बाद ही यदि गूढता पूर्वक देखेंगे तो आप को खुद ही अनुभव हो जायगा। इन की प्रकृति कितनी शुद्ध व सच्ची है, इस सच्चाई का ही कारण है कि उनके सम्मुख छल-कपट आदि की प्रवृत्तियां अपना घर बना नहीं पाती।
उन्होंने अपने त्याग मय जीवन से बहुत कुछ सीखा, अनुभव किया और उसी की ही देन है कि आज संसार को उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। जो भी व्यक्ति इस समय इनके अनुभव का लाभ उठाना चाहे उठा सकता है और अपने जीवन को तपोमय, ज्ञानमय बना कर अपने खुद का व अपने देश का, समाज का कल्याण कर सकता है।
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