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युगवीर आचार्यप्रवर श्रीमद् यतींद्रसूरिजी
हैं। अपनी प्रतिदिनकी बुराई व भलाई की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं । यह मन को स्थिर करने में कम उपयोगी नहीं है ।
खण्ड
मानवप्रकृति तो स्वभावतः हमेशा पतन की ओर अधिक अग्रसर होती है । उसको रोकने के लिये, उसको बचाने के लिये, उसको उठाने के लिये, धार्मिक जीवन बनाये रखने के लिये, कला व संस्कृति को जीवित रखने के लिये इन मन्दिर और मूर्तियोंने मानव की बड़ी मदद की है । जिन्होंने मन्दिर व मूर्तियों का साधन उपयुक्त नहीं समझा है व जिन्होंने इन से दूर रहने की कोशीष की है उनका इतिहास अंधेरे में अधूरा रह गया है। आज तो उन की संस्कृति कथानक के रूप में रह गई है । किसी २ की संस्कृति तो बिलकुल नष्ट हो गई है और उनका नामनिशान ही संसार से नष्ट हो गया है । अपनी संस्कृति को कायम व स्थायी रूप में रखने के लिये श्री यतीन्द्रसूरिने पूर्वाचार्यो के मार्ग का अनुसरण कर के हजारों मूर्तियों के इतिहास को जीवनदान दिया। साथ ही जैन संस्कृति व कला को जीवित रखने में एक बड़ी मानवसेवा की है ।
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मनुष्य स्वभावतः सुख को चाहता है और दुःख के पास किंचितमात्र भी फटकना नहीं चाहता है और यदि उस को पहिले से मालूम हो जाय कि सामने से दुःख आ रहा है तो वह उस से बचने की या उस से संघर्ष लेने की अपनी पूर्ण तैयारी करने लग जाता है, चाहे भविष्य कुछ भी हो । दुःख की कल्पना कभी कोई स्वप्न में भी नहीं करता है, न दुःख को बुलाने की ओर कोई कदम ही उठाता है । फिर भी दुःख स्वभावतः मान लीजिये, मानव-जीवन की परीक्षा के लिये आ ही जाता है । जो व्यक्ति उस को बल पूर्वक सहन कर लेता है वही विजयी माना जाता है और जो रो-रो कर इस को भुगतता है वही निर्बल और डरपोक कहा जाता है ।
संसार में ऐसे अवतारी पुरुष हुए हैं जिन्होंने दुःख को दुःख नहीं माना है, परंतु उस को सुख रूप मान कर इतना सहन किया है कि एक कान से दूसरे कान को भी यह भनक नहीं पड़ी कि यह व्यक्ति महान् दुःखी है, इस के उपर दुःख का पहाड़ खड़ा है ।
भगवान् महावीर जिस समय जंगल के अंदर तपश्चर्या कर रहे थे उस समय उन के उपर बहेलियों, देवताओं आदि ने जो दुःख के पहाड़ खड़े किये हैं जिनको केवल मात्र आज सुनने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वहां उन्होंने इन को बड़ी ही सावधानी पूर्वक सहन किया हैं। किसी के सामने अपने दुःखों की गाथाओं को नहीं सुनाया हैं। एक वक्त इन्द्रने भी आकर उन के उपसर्गों व दुःखों को सहन करने में मदद करने के लिये प्रार्थना की, किन्तु उस वीर प्रभुने इन्द्र की प्रार्थना को ठुकरा दिया। उन्होंने क्षणभर के लिए भी इन्द्र की ओर आंख उठाकर नहीं देखा ।
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