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युगवीर आचार्यप्रवर श्रीमद् यतींद्रसूरिजी संसार के सम्मुख आ चुकी हैं । रचना के साथ २ संसार की जनता को इस का पूरा २ लाभ भी मिलता जा रहा है। . इस साहित्य-रचना के साथ २ आप का समाज-सेवा में भी कम स्थान नहीं है । जैन मुनि जिस दिन से अपने जीवन में साधुजीवन की दीक्षा अंगीकार करता है सामाजिक व धार्मिक सेवा का व्रत भी उसी के साथ २ अंगीकार हो जाता है । जैन मुनियों की सामाजिक व धार्मिक सेवाएं शुद्ध व निःस्वार्थ होती हैं । जैनमुनि पैदल विहार व परमित उपधी (परिग्रह ) पंच महाव्रत, पैसे-टके से बिल्कुल विलग रह कर अपने यम-नियमों का बाना पहन कर गांव २ सामाजिक और धार्मिक उपदेशों के द्वारा सच्ची समाजसेवा करते हैं ।
आज भारत वर्ष में जैन मुनियों का सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में समाजसेवा का जो स्थान है वह अन्यत्र बहुत कम पाया जाता है। जिस ढंग व तरीके से जैनमुनि समाज सेवा करते हैं, यदि इस प्रकार का व्रत भारत के अन्य साधु भी अंगीकार करलें तो भारत वर्ष का सामाजिक जीवन प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त हो सकता है । आज समाज में अनेक बुराइयोंने अपना स्थान बना लिया है जिसके कारण हमारा सामाजिक जीवन पतन की ओर बढ़ रहा है और इसी कारण हमारा धार्मिक जीवन भी शुद्ध स्वरूप में नहीं रहा है। केवल मात्र रूढी रूप ही धार्मिक जीवन बन गया है । कमी २ रूढ़ियां भी धार्मिक व सामाजिक जीवन को बनाये रखने के लिये बड़ी मदद करती हैं; किन्तु उन में भी समझदारी की बड़ी आवश्यकता होती है।
जिस समय सामाजिक या धार्मिक जीवन की पवित्रता के लिये कोई यम-नियम या रीत-रीवाज चलाया जाता है उस समय उसकी आवश्यकता बहुत ही महत्वपूर्ण व लाभदायी होती है। धीरे २ कई वर्षों के बाद उन यम-नियमों और रीत-रीवाजों में इतनी बुराइयां अपना घर बना लेती हैं या उन में इतनी विकृतियां पैदा हो जाती हैं कि वेही यम-नियम या रीत-रीवाज जो हमारा कल्याण करने वाले थे, हमारे ही पतन के कारण बन जाते हैं । इन्हीं के सुधार के लिये मुनिसमाज की जरूरत है।
श्रीयतींद्रसूरिने भी १४ वर्ष की बाल्यवय से समाजसेवा का जो व्रत अंगीकार किया आज दिन तक पैदल विहार कर के गांव-गांव, शहर-शहर, जिल्ले-जिल्ले, प्रान्त प्रान्त में घूम कर सामाजिक व धार्मिक जीवन का अध्ययन, मनन व परीशीलन किया
और उस के साथ २ उपदेश देकर मानवसमाज को पतन के गर्त से बचाया । मानवजीवन में जो पाशविक बुराइयां अपना स्थान बना लेती है उनको दूर करने में सतत प्रयत्न किया यह मानव जीवन में कम सेवा नहीं है। मानव को मानव बनाये रखना और धीरे २ मानव को आत्मकल्याण की ओर अग्रसर कर के परमात्म स्वरूप बना देना यह कम समाजसेवा नहीं है। इसी समाज सेवाने भारत में अनेक ऋषि-महर्षियों को जन्म दिया है और उनका जीवन आज संसार के लिये अनुकरणीय बन गया है।
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