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खण्ड
इतिहास-प्रेमी गुरुवर्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
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सात भागों में क्रमशः पृ. १०२६, ११९२, १३७९, २७९६, १६३६, १४६६ और १२४४ में विभक्त है । इसमें जैन शास्त्र-आगम- कथा - कोषों में प्रयुक्त सर्व प्राकृत एवं समस्त प्राकृत शब्दों का संकलन है और विशेषता यह है कि प्रत्येक प्राकृत शब्द से प्रारंभ और प्रसिद्ध हुई पुस्तक, कथा, कहानी, पुरुष, प्राम, नगर, सूक्ति, युक्ति आदिआदि अनेक बातों का विशद साहित्यिक और इतिहास-पुरातत्त्व की दृष्टि से इसमें परिचय है । सम्पादन और प्रकाशन दोनों साथ-साथ ही चलते रहे । सूरिजी के स्वर्गवास के पश्चात् तुरंत ही वि सं. १९६४ में आपश्री और मुनि श्री दीपविजयी ने उपरोक्त दोनों कार्य एक स्वतंत्र यंत्रालय रतलाम में खोल कर प्रारंभ कर दिये । वि. सं. १९७८ में मुद्रणकार्य समाप्त हुआ । पाठक स्वयं विचार सकते है कि इस जैन एन्साइक्लोपेडिया कोष और आगम-निगमसमष्टि ग्रन्थ के सम्पादन के लिये किस योग्यता, पाण्डित्य की आवश्यकता होती है, सम्पादक में किस स्तर का श्रम, धैर्य, कष्टसहिष्णुता और अनवरत साधना-शक्ति चाहिए ? आपश्री कितने ऊँचे पंडित एवं दृढव्रती एवं संकल्पी हैं-सहज समझ में आ सकता है।
इस छोटे से निबंध में आपश्री के महत्वपूर्ण जीवन पर सुविधा के साथ लिखा नहीं जा सकता; अतः मैं वि. सं. १९७२ से आगे के आपश्री के जीवन को निम्न शीर्षकों में विभाजित करके ही संक्षेप में कुछ लिख सकता हूँ।
१-यात्रायें, २-अंजनशलाका-प्रतिष्ठायें, ३-तपाराधन, ४-संघ-यात्रायें, ५तीर्थोद्वार, ६-शान-भण्डार, ७-मण्डल- विद्यालय, ८- साहित्य-सेवा और श्री राजेन्द्रसूरि अर्धशताब्दी महोत्सव ।
यात्रायें - आपश्री ने वि. सं. १९७२ से वि. सं. २०१४ पर्यंत स्वतंत्र विहार करके साधु-शिष्यमण्डलसहित और कभी साधु-श्रावक सहित शंखेश्वर, तारंगगिरि, अबुर्द, पालीताणा, गिरनार, केसरियाजी, माण्डवगढ़, लक्ष्मणी, कोर्टाजी, गोड़वाड़-पंचतीर्थी, भाण्डवपुर, जालोर, वरकाणा, ढीमा, भोरोल, जीरापल्ली, हमीरगढ और इन तीर्थों के मार्गों में पढ़नेवाले छोटे - मोटे मंदिर तीर्थों की, एक बार और किसी तीर्थ की अधिक बार यात्रायें की हैं । ___संघयात्रायें - श्री पालीताणा, गिरनार, अर्बुद, मण्डपाचल, जैसलमेर, कच्छभद्रेश्वर, गौडवाड़ पंच तीर्थों की लघु एवं बृहद् संघ-यात्रायें की। __यह तो प्रायः सर्व ही साधु, जैन जैनेतर करते आये हैं । परन्तु आपने विशेष और नवीन बात इन स्वतंत्र और संघयात्राओं पर जो की वह यह कि आपने इन यात्राओं का वर्णन 'श्री यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन भाग १, २, ३, ४ और श्री कोर्टाजी तीर्थ का इतिहास, मेरी नेमाड़यात्रा, मेरी गोड़वाड़ यात्रा, श्री भाण्डवपुरतीर्थ, नाकोड़ा पार्श्वनाथ नामक पुस्तकें प्रकाशित करके जो प्रस्तुत किया है तथा तीर्थों के मार्ग में और विहार-क्षेत्र में स्पर्शित ग्राम, नगरों का जो वर्णन आपने उक्त पुस्तकों में दिया है - यह करके आपने इतिहास, पुरातत्त्व की महान् सेवा की है। ये ग्रंथ
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