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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
परम्परा जैन पाठान्तर में सुरक्षित मिली है । मुग्धकथाओं का भी एक बड़ा रोचक संग्रह अशात जैन कर्तृक 'भरटकत्रिंशिका' नाम से मिला है ।
प्रबन्ध साहित्य :
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चरित और कथा साहित्य से सम्बद्ध यह साहित्य विशेष रूप से पच्छिमी भारत के जैन विद्वानों द्वारा लिखा गया है । इसकी रचना प्रायः १२ वीं शताब्दी के बाद से ही प्रारम्भ होती है । इसे हम अर्ध ऐतिहासिक और अर्धकथानक रूप में देखते हैं । इस प्रकार के साहित्य का सूत्रपात तो आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ' परिशिष्ट पर्व' के रूप में कर दिया था। जिसके पीछे पूरक रूप में प्रभाचन्द्र ( १३ वीं शता० ) ने 'प्रभावक चरित' की रचना की । मेरुतुंग का ' प्रबन्ध चिन्तामणि' (सन् १३०६ ई.), राजशेखरसूरि का ' प्रवन्धकोश' (सन् १३४९ ई.) तथा 'कुमारपालचरितसंग्रह ' तथा कतिपय प्रबन्धों के संग्रह रूप में प्रकाशित 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह ' इस प्रकार के साहित्य में प्रमुख हैं ।
इन प्रबन्धों में हमें ऐतिहासिक महत्त्व के राजा, महाराजा, सेठ और मुनियों के सम्बन्ध में प्रचलित कथा-कहानियों का संग्रह मिलता है । साथ में कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों का भी वर्णन मिलता है जिनका कि अभिलेखों और अन्य साहित्यिक आधारों से भलीभांति समर्थन होता है । ये अपने समकालीन इतिहास पर अच्छी तरह प्रकाश डालते हैं । इस कोटिके ग्रन्थों में जिनप्रभसूरिकृत ' विविधतीर्थकल्प ' ( सन् १३२६- ३१ ) भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें अनेक प्राचीन जैन तीर्थों के ऐतिहासिक वर्णन के साथ उनके उद्धार करनेवाले राजाओं और सेठों का भी वर्णन दिया गया है । इन ग्रन्थों की संस्कृत भाषा प्राकृत और अपभ्रंश से प्रभावित है । मध्यकालीन भारत के धार्मिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को समझने के लिए इन ग्रन्थों का बड़ा ही उपयोग है ।
ललित साहित्यः- मध्यकालीन जैनाचार्यों ने ललित साहित्य के विविध अंगों की भी बड़े उत्साह के साथ सेवा की है । ललित साहित्य को प्रमुखरूप से दृश्झ एवं श्रव्य काव्य में विभक्त किया गया है । काव्य मनीषियों ने दृश्य काव्य को नाटक आदि दश भेदों में तथा नाटिका आदि १२ उपभेदों में विभक्त किया हैं । संस्कृत साहित्य में नाटकों को सबसे रमणीय माना जाता है " काव्येषु नाटकं रम्यं " । दृश्य काव्य होने से इसके लेखक कवि को कथावस्तु के चुनाव, पात्रों के चरित - चित्रण, संवादों तथा अलंकार एवं छन्दों की योजना में बड़ी सावधानी रखनी पड़ी है । जनता को तन्मय बना देना ही नाटककार की सफलता है ।
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नाटक : यद्यपि जैन और बौद्ध सन्तों के लिए नृत्य, गीत, वाद्यंत्र आदि देखना, सुनना वर्जित है; इस लिए इन सबके समुदित रूप नाटक की कल्पना उनके लिए १ ये सभी ग्रन्थ 'सिन्धी जैन ग्रन्थमाला' भारतीय विद्याभवन, बम्बई से प्रकाशित हैं ।
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