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________________ संस्कृत में जैनों का काव्यसाहित्य लेखक डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, एम. ए. पी. एच. डी. संस्कृत-संस्कार की गई-परिष्कृत भाषा का नाम है । इसे अमरवाणी, देवभाषा आदि नाम से भी सम्मानित किया जाता है। इसमें युगों तक भारतीय संस्कृति और सभ्यता की अविच्छिन्न धारा बहती रही तथा इसने अपनी शान - विज्ञान की धारा से भारतीय पाण्डित्य को अनुप्राणित किया है । इस भाषा ने भारत बसुन्धरा पर ऐसे प्रखर मेधावी पण्डितों को पैदा किया है, जिनकी विद्वत्ता पर आज भी संसार मुग्ध है। इसके विशाल साहित्य की प्रतिद्वन्द्विता संसार की कोई भी भाषा नहीं कर सकती। इस भाषा के साहित्य की सेवा भारत के तीन प्रधान धर्मों-जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण-के विद्वानों ने समान रूप से की है। संस्कृत का प्रौढ शान उनकी विद्वत्ता की कसाटी समझा जाता था। भारतीय मस्तिष्क संस्कृत वाङ्मय में विशेष रूप से प्रस्फुटित हुआ था। इस लिए वह सभी वर्ग के विद्वानों द्वारा समादृत था । भारतीय संस्कृति की दोनों धाराओंश्रमण और ब्राह्मण-ने इसके साहित्य की समृद्धि में स्पर्द्धा से काम लिया । यद्यपि श्रमण-संस्कृति के उपासक विद्वानों की रुचि साधारणतः जनसामान्य की भाषा 'प्राकृत एवं अपभ्रंश' के प्रति तथा पीछे देशीय बोलियों के प्रति थी, क्योंकि उन्हें बहुजनहिताय अपने उपदेश जनता की भाषा में देने पड़ते थे । तो भी अपने उन सिद्धान्तों को दार्शनिक कसौटी में कसने के लिए; विद्वत्समाज - मान्यता प्राप्त करने के लिए एवं साहित्य के विविध अंगों की प्रतिस्पर्धा में अपने वर्ग के साहित्य का गौरव स्थापित करने के लिए, इन विद्वानों ने संस्कृत वाड्मय के समृद्ध करने में बड़ा भारी योग दिया है। आज यही कारण है कि जैन विद्वानों की, सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, चम्पू, कोष, वैद्यक, ज्योतिष, गणित, राजनीति, सुभाषित, कथा, पुराण और चरित आदि के क्षेत्र में बहुमूल्य रचनाएं उपलब्ध है। जैन साहित्य की विशाल धारा ईसा की ५-६ वीं शती पूर्व से अब तक अनवरत बहती आ रही है। प्रारंभिक शताब्दियों में भले ही वह अर्थमागधी और अन्य प्राकृतों में लिखा गया हो, पर ईसा की ३ री शताद्वी से अब तक जैन विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के साथ संस्कृत में भी बड़ी तत्परता के साथ साहित्यसृजन किया है। उपलब्ध संस्कृत साहित्य में तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गद्धपिच्छ उमास्वामी को सर्वप्रथम लेखक माना जाता है । इनके बाद समन्तभद्र, सिद्धसेन. पूज्यपाद, अकलंक, हरिभद्र आदि सहस्रों विद्वान आचार्यों ने अपने पवित्र शान से इसे पुनीत किया है।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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