SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय खंड अंग विज्जा %3D सुवर्ण कार्षापण अभीतक प्राप्त नहीं हुए । चांदी के कार्षापण भी दो प्रकार के थे । एक नये और दूसरे मौर्य - शुंगकाल के बत्तीस रत्तीवाले पुराण कार्षापण । चांदी के नये कार्षापण कौन से थे इसका निश्चय करना भी कठिन है । संभवतः यूनानी या शक-यवन राजाओं के ढलवाये हुए चांदी के सिक्के नये कार्षापण कहे जाते थे । सिक्कों के विषय में अंगविजा की सामग्री अपना विशेष महत्त्व रखती है । पहले की सूची में [पृ० ६६] खत्तपक और सतेरक इन दो विशिष्ट मुद्राओं के नाम भी आचुके हैं । मासक सिक्के भी चार प्रकार के कहे गये हैं । सुवर्ण मासक, रजत मासक, दीनारमासक और चौथा केवल मासक जो तांबे का था और जिसका संबंध णाणक नामक नये तांबे के सिक्के से था । दीनार मासक की पहचान भी कुछ निश्चय से की जा सकती है अर्थात् कुशाणयुग में जो दीनार नामक सोने का सिक्का चालू किया गया था और जो गुप्तयुग तक चालू रहा, उसीके तोल - मान से संबंधित छोटा सोने का सिक्का दीनार मासक कहा जाता रहा होगा । ऐसे सिक्के उस युग में चालू थे यह अंग विज्जा के प्रमाण से सूचित होता है । वास्तविक सिक्कों के जो नमूने मिले हैं उनमें सोने के पूरी तौल के सिक्कों के अष्टमांश भाग तक के छोटे सिक्के कुशान राजाओं की मुद्राओं में पाये गये हैं। (पंजाब संग्रहालय सूची संख्या ३४, ६७, १२३, १३५, २१२, २३७ ) किन्तु संभावना यह है कि षोडशांश तौल के सिक्के भी बनते थे। रजकमाषक से तात्पर्य चांदी के रौप्यमाषक से ही था । सुवर्ण मासक वह मुद्रा ज्ञात होती है जो अस्सी रत्ती के सुवर्ण कार्षापक के अनुपात से पांच रत्ती तौल कर बनाई जाती थी। इसके बाद कार्षापण और णाणक इन दोनों के निधान की संख्या का कथन एक से लेकर हजार तक किन लक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए यह भी बताया गया है। यदि प्रश्नकर्ता यह जानना चाहे कि गड़ा हुआ धन किसमें बंधा हुआ मिलेगा तो भिन्न-भिन्न अंगों के लक्षणों से उत्तर देना चाहिए - थैली में (थविका), चमड़े की थैली में (चम्मकोस), कपड़े की पोटली में (पोट्टलिकागत) अथवा अट्टियगत (अंटी की तरह वस्त्र में लपेटकर), सुत्तबद्ध, चक्कबद्ध, हेत्तिबद्धये पिछले तीन शब्द विभिन्न बन्धनों के प्रकार थे जिनका भेद अभी स्पष्ट नहीं है। कितना सुवर्ण मिलने की संभावना है इसके उत्तर में पांच प्रकार की सोने की तौल कही गई है अर्थात एक सुवर्णभर, अष्टभाग सुवर्ण, सुवर्णमासक (सुवर्ण का सोहलवां भाग), सुवर्ण काकिणी [सुवर्ण का बत्तीसवां भाग] और पल [चार कर्ष के बराबर] । ५८ वें अध्याय का नाम णट्टकोसय अध्याय है जिसमें कोश के नष्ट होने के सम्बन्ध में विचार किया गया है। नष्ट के तीन भेद हैं - नष्ट, प्रमृष्ट (जबरदस्ती छीन लिया गया) और हारित [जो चोरी हुआ हो] । पुनः नष्ट के दो भेद किए गये हैं - सजीव और अजीव । सजीव नष्ट दो प्रकार के हैं - मनुष्ययोनिगत और तिर्यक् - योनिगत। तिर्यक् योनि के भी तीन भेद हैं - पक्षी, चतुष्पद और सरिसर्प। सरिसों में दव्वीकर, मंडली और राजिल (राइण्ण) नामक सों का उल्लेख किया गया Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy