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________________ विषय खंड अंग विज्जा बताना पडता था - जैसे प्रासाद में, माल या ऊंचे स्थान में, पृष्ठवंश में, आलग्ग (आलग्न अर्थात् प्रासाद आदि से मिले हुए विशेष स्थान खिड़की, भाले आदि), प्राकार, गौपुर, अट्टालक, वृक्ष, पर्वत, निर्गमपथ, देवतायतन, कूप, कूपिका, अरण्य, आराम, जनपद, क्षेत्र, गर्त, रथ्या, निवेशना, राजमार्ग, क्षुद्र रथ्या, निक्कुट रथ्या [गृहोद्यान मार्ग], आलग्ग [आलमारी या आला], कुड्या, णिव्व [ नीव, छज्जा], प्रणालि कुपी, वर्चकुटी, गर्भगृह, आंगन, मकान का पिछवाड़ा [पच्छावत्थु] । निधान बताते समय इसका भी संकेत किया जाता था कि किस प्रकार के पात्र में गडा हुआ धन मिलेगा - जैसे लोही [लोहे का बना हुआ गहरा डोलनुमा पात्र [. चरु ], कड़ाह, अरंजर, कुंड, ओखली, वार, लोहीवार (लोहे का चौडे मुँह का वर्तन)। इनमें से लोहा, कड़ाह और ऊष्ट्रिक (ऊष्ट्रिका नामक भाजनविशेष बहुत बड़े निधान के लिए काम में लाये जाते थे)। कुंड, ओखली, वार और लोहवार मध्यम आकृति के पात्र होते थे । छोटों में आचमनी, स्वस्ति आचमनी, चरुक और ककुलुडि (छोटी कुलंडिका या कुल्हाड़ी, कुल्हड़िया = घटिका, पाइयसहमहण्णवों)। अंगवित को यह भी संकेत देना पड़ता था कि निधान भाजन में रखा हुआ मिलेगा या सीवे भूमि में गड़ा हुआ अथवा वह प्राप्य है या अप्राय्य । (पृ० २१३-२१४) अध्याय ५६ की संज्ञा णिधिसुत्त या नीधिसूत्र है । पहले अध्याय में निधान के परिमाण, प्राप्तिस्थान और भाजन का उल्लेख किया गया है । इस अध्याय में निधान द्रव्य के भेदों की सूची है । वह तीन प्रकार का हो सकता है । प्राणयोनिगत, मूलयोनिगत और धातुयोनिगत । प्राणयोनिसंबंधित - उपलब्धि मोती, शंख, गवल (= सींग), बाल, दन्त, अस्थि आदि से बने हुए पात्रों के रूप में संभव है । मूलयोनि चार प्रकार की कही गई हैं - मूलगत, स्कन्धगत, पत्रगत, फलगत । धातुयोनि का संबंध सब प्रकार के धातु, रत्न, मणि आदि से है - जैसे लोहिताक्ष, पुलक, गोमेद, मसारगन्ध, खारमणि - इनकी गणना मणियों में होती है। घिसकर अर्थात् चीरकर और कोर करके बनाई हुई गुरियां और मणके मणि, शंख और प्रवाल से बनाये जाते थे । वे विद्ध और अविद्ध दो प्रकार के होते थे । उनमें से कुछ आभूषणों के काम में आते थे । गुरियां या मनके बनाने के लिये खड़- पत्थर भिन्न-भिन्न आकृति या परिमाण के लिये जाते थे - जैसे अंजण [रंगीन शिला], पाषाण, शर्करा, लट्ठक [डला] देल्लिया [डली] मच्छक [पहलदार छोटे पत्थर], फल्ल [रवेदार संग या मनके ] । इन्हें पहले चीरकर छोटे परिमाण का बनाते थे; फिर चिरे हुए टुकड़े को कोर कर [कोडिते] उस शकल का बनाया जाता था जिस शकल की गुरिया बनानी होती थी। कोरने के बाद उस गुरिया को खोडित अर्थात् घिसकर चिकना किया जाता था। कड़े संग या मणियों के भतिरिक्त हाथीदंत और जंगली पशुओं के नख भी [दंतठान्हे ] काम में लाये जाते थे । इन दोनों के कारीगरों को दंतलेखक और नखलेखक कहा गया है। बड़े टुकडों को चीरने या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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