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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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फलकशन का वर्णन किया गया है । २७ नक्षत्र और उनसे होनेवाले शुभाशुभ फल का भी विस्तार से उल्लेख है (पृ. २०६-९)।
५३ अध्याय की संज्ञा उप्पात अध्याय है । पाणिनि के ऋगयनादि गण (४.३.७३) में अंगविद्या, उत्पात, संवत्सर मुहूर्त और निमित्त का उल्लेख आया है। जो उस युग में अध्याय के फुटकर विषय थे । ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र, आदिस्य, धूमकेतु, राहु के अप्राकृतिक लक्षणों को उत्पात मान कर उनके आधार पर शुभाशुभ फल का कथन किया जाता था। इनके कारण जिन - जिन वस्तुओं पर विपरीत फल देखा जाता था उनका भी उल्लेख किया गया है-जैसे प्रासाद, गौपुर, इन्द्रध्वज, तोरण, कोष्ठागार, आयुधागार, आयतन, चैत्य, यान, भाजन, वस्त्र, परिच्छेद, पर्यंक, अरंजर, आभरण. शस्त्र, नगर, अंतःपुर, जनपद, आरण्य, आराम - इन सब पर उत्पात लक्षणों का प्रभाव बताया जाता था [पृ० २१०-२११] ।
अध्याय ५४ वे में सार-असार वस्तुओं का कथन है । सार वस्तुएँ चार प्रकार की हैं-धनसार, मित्रसार, ऐश्वर्यसार और विद्यासार । इनमें भी उत्तम, मध्य अवर ये तीन कोटियां मानी गई हैं । धनसार के अन्तर्गत भूमि, क्षेत्र, आराम, ग्राम आदि के स्वामित्व की गणना की जाती है । शयनासन, पान, भोजन, वस्त्र, आभरण की समृद्धि को गृहसार कहते थे । धनसार का एक भेद प्राणसार भी है। जो दो प्रकार का है - मनुष्यसार या मनुष्य - समृद्धि और तिर्यक्योनिसार अर्थात् पशु आदि की समृद्धिजैसे हाथी, घोड़े, गौ, महिष, अजा, एडक, खर, उष्ट्र आदि का बहुस्वामित्व । धनसार के और भी दो भेद हैं-अजीव और सजीव । अजीव के १२ भेद हैं-वित्तसार, स्वर्णसार, रुप्यसार, मणिसार, मुक्तसार, वस्त्रसार, आभरणसार, शयनासनसार, भाजनसार, द्रव्योपकरण नगदी] अब्भपरज सार [अभ्यवहार-खान-पान की सामग्री और धान्यसार । वहुत प्रकार की सवारी की संपत्ति यानसार कहताती थी।
मित्रसार या मित्रसमृद्धि पांच प्रकार की होती थी। संबंधी, मित्र, वयस्क, स्त्री एवं मृत्य कर्मकरा । बाहर और भीतर के व्यवहारों में जिसके साथ साम या सख्यभाव हो धनमित्र और जिसके साथ सामान्य मित्रभाव हो वह वयस्क कहा जाता है ]
ऐश्वर्यसार के कई भेद हैं -जैसे नायकत्व, अमात्यत्व, राजत्व, सेनापतित्व आदि । - विद्यासार का तात्पर्य सब प्रकार के बुद्धिकौशल, सर्वविद्या एवं सर्वशास्त्रों में कौशल या दक्षता से है। (पृ० २११–२१३)
५५ वें अध्याय में निधान या गढ़ी हुई धनराशि का वर्णन है। निधान संख्या या राशि की दृष्टि से कई प्रकार का हो सकता है -जैसे शतप्रमाण, सहस्रप्रमाण, शतसहस्रप्रमाण, कोटिप्रमाण अथवा इससे भी अधिक अपरमित प्रमाण। एक, तीन, पांच, सात, नौ, दस, तीस, पचास, सत्तर, नव्वे, शत आदि भी निधान का प्रमाण हो सकता था। किस स्थान में निधान की प्राप्ति होगी इस विषय में भी अंगवित को
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