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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
कुशल प्रश्न (जवणीय) पूछा जाय उसके आधार पर वह सुख, दुःख का कथन करे । जैसे पराङ्मुख होकर पूछने से हानि और अभिमुख होकर पूछने से लाभ मिलेगा। रिक्तभाजन, उदकपूर्ण भांड, फल आदि जो-जो वस्तुएँ घर में दिखाई पड़े ये सब अंगविद् के लिए इष्ट और अनिष्ट फल के सूचक होते हैं ( पृ० १९५-७)।
४७ वां यात्राध्याय है । इसमें राजाओं की सैनिक यात्रा के फलाफल का विचार किया गया है । उस संबंध में छत्र, श्रृंगार, व्यंजन, तालवृन्त, शस्त्र-प्रहरण, आयुध, आवरण, वर्म, कवच - इनके आधार पर यात्रा होगी या नहीं यह फलादेश बताया जा सकता है। यात्रा कई प्रकार की हो सकती हैं-विजयशालिनी (विजइका), आन दायिनी (संमोदी) निरर्थक, चिरकाल के लिये, थोड़े समय के लिए, महाफलवाली, बहुत क्लेशवाली, बहुत असववती, प्रभृत अन्नपानवाली, बहुत खाद्यपेय से युक्त, धनलाभ वाली, आयबहुला, जनपदलाभवाली, नगरलाभवाली, ग्राम, खेरलाभवाली, अरण्यगमनभृदिष्ठा, आराम, निम्नदेश आदि स्थानों में गमन युक्त - इत्यादि । यात्रा के समय प्रसनता के भाव से विजय और अप्रसन्न भाव से पराजय या विवाद सूचित होता है । यात्रा के समय नया भाव दिखाई पड़े तो अपूर्व जय की प्राप्ति होगी । ऐसे ही वाहनलाभ, अर्थलाभ आदि के विषय में भी यात्राफल का कथन कहना चाहिए । किस दिशा में और किस ऋतु में किस निमित्त से यात्रा संभव होगी यह भी अंगविज्जा का विषय है [पृ० १८७ - १९९] ।
४८ वें जयनामक अध्याय में जय का विचार किया गया है । राजा, राजकुल, गण, नगर, निगम, पट्टण, खेड़, आकर, ग्राम, संनिवेश-इनके सम्बन्ध में कुछ उत्तम चर्चा हो तो जय समझनी चाहिए । ऐसे ही ऋतुकाल में अनुकूल वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, पुष्प, फल, पत्र, प्रवाल, प्ररोह आदि जय सूचित करते हैं । वस्त्र, आभरण, भाजन, शयनासन, यान, वाहन परिच्छेद आदि भी जय के सूचक हैं। छत्र, श्रृंगार, ध्वज, पंखा, शिविका, रथ, प्रासाद, अशन, पान, ग्राम, नगर, खेर, पट्टण, अनीपुर, गृहक्षेत्र, सन्निवेश. आपण, आराम, तडाग, सर्वसेत आदि के सम्बन्ध में उन शब्द या रूप का प्रादुर्भाव हो तो जानना चाहिए कि विजय होगी । इन्हीं के सम्बन्ध में यदि विपरीत भाव अथवा हीन-दीन शब्द रूप की प्रतीति हो तो पराजय सूचित होती है । विजय के भी कितने ही भेद कहे गये हैं । जैसे अपने पराक्रम से, पराये पराक्रम से, विना पुरुषार्थ के सरलता से विजय, राज्य की विजय, राजधानी या नगर की विजय, शत्रु के देश की विजय, आयबहुल विजय, महाविजय, जोणिबहुल विजय [जिसमें धन का लाभ न हो; किन्तु प्राणिओं का लाभ हो,], शस्त्रनिपात द्वारा विजय, प्राणातिपातबहुल विजय, अहिंसा द्वारा मुदित विजय आदि । [पृ० १९९-२००]
४९ वे अध्याय में इसी प्रकार के विपरीत चिह्नों से पराजय का विचार किया है-[पृ० २०१-२] ।
५० वें उवहुत (उपद्रव) नामक अध्याय में शरीर के विविध दोष और रोग
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