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विषध खंड
अंग विज्जा
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__४०-भोजन नामक चालीसवें अध्याय में आहार के सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया गया है । आहार तीन प्रकार का होता है;-प्राणयोनि, मूलयोनि, धातुयोनि । प्राणयोनि के अन्तर्गत - दूध, दही, मक्खन, तक्र, घृत, मधु आदि हैं । उसके भी संस्कृत, असंस्कृत, आग्नेय, अनाग्नेय भेद किये गये हैं।
कंद, मूल, फल, फूल, पत्र आदि से भी आहार उपलब्ध होता है । कितने ही धान्यों के नाम गिनाये गये हैं । उत्सवों के समय भोज किये जाते थे । उपनयन, यज्ञ, मृतक, अध्ययन के आदि - अन्त एवं गोष्ठी आदि के समय भोजों का प्रबन्ध होता था । भोजन अपने स्थान पर या मित्र आदि के स्थान पर किया जाता था । इक्षुरस, फलरस, धान्यरस आदि पानों का उल्लेख है । यवा, प्रसन्ना, अरिष्ट, श्वेतसुरा ये भक्ष थे । यवागू-दूध, घृत, तैल आदि से बनाई जाती थी । गुड़ और शक्कर के भेदों में शर्करा, मच्छांडिका, खजकगुल (खाद्यकगुड) और पिक्कास का उल्लेख है । समुद्र, सौन्ध, सौवर्चल, पांसुखार, यवाखार आदि नमक के भेद किये गये हैं । मिठाइयों में मोदक, पिंडिक, पप्पड, मुरेन्डक, साल्ग कान्डिक, अम्बट्टिक, ओपलिफ, वौक्किनक्क. ओव्वलफ, पपअड, सक्कुलिका, यूप, फेणक, अक्खयूप, अपदिहन, पविनल्लक (पोतलग) वेलानिक, पत्तभन्जिन, सिद्धस्थिका, दीयक, ओक्कारिका, भंदिल्लिका, दीहसस्कृलिका, खार वद्रिका, खोडक, दीवालिक [दीवलें] दसीरिका, मिसकण्टक, मन्थतक-तरह-तरह की मिठाइयाँ
और खाद्यपदार्थ होते थे । अम्बठ्ठिक (आमरी या आम से बनी हुई मिठाई हो सकती है जिसे अवधी में गुलम्बा कहते हैं)। पोवालिक - पौली नाम की मीठी रोटी और मुरण्डक छने का बना हुआ मुरंडा या तिलके लड़ होने चाहिएँ । फेणक - फेणी के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।
४१ वाँ वरियगंडिका अध्याय है। इसमें मूर्तियों के प्रकार, आभरण और अनेक प्रकार की रत - सुरत की क्रीडाओं के नामों का संग्रह है। सुरत क्रीडाओं के तीन प्रकार कहे गये हैं -दिव्य, तिर्यक् योनि और मानुषी। दिव्य क्रीडाओं में छत्र, भंगार, जक्खोपायण (संभवतः बक्ष कर्दम नामक सुगंध की भेंट का प्रयोग होना है), मानुषी क्रीडा में - वस्त्र, आभूषण, यान, उपानह, माल्य, मुकुट, कंघी, स्नान, विशेषक, गन्ध, अनुलेपन, चूर्ण, भोजन, मुखवासक आदि का प्रयोग किया जाता है। (पृ० १८२-६)
४२ वें अध्याय (स्वप्नाध्याय) में दिट्ठ, अदिट्ट और अवतदिट्ठ नामक स्वप्नों का वर्णन है। ये शुभ और अशुभ प्रकार के होते हैं। स्वप्नों के और भी भेद किये गये हैं। जैसे श्रुत जिसमें मेघगर्जन, आभूषणों का या सुवर्ण मुद्राओं का शब्द या गति आदिक सुनाई पड़ते हैं। गंध -स्वप्नों में सुगन्धित पदार्थ का अनुभव होता है। जैसे ही कुछ स्वप्नों में स्पर्शसुख, सुरत, जलचर, देव, पशु, पक्षी आदि का अनुभव होता है। अनेक सगे-सम्बन्धी भी स्वप्नों में दिखाई पडते हैं जोकि मानुषी स्वप्न कहलाते हैं। स्वप्नों में देव और देवियां भी दिखाई पड़ते हैं। सुवर्णक, रूप्य, काहापण नामक सिक्के भी स्वप्न में दिखाई पड़ते हैं। (पृ० १८६-९१)
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