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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध है जो हीन या अप्रशस्त अर्थ के सूचक होते हैं। प्रायः जिनके बच्चे जीवित नहीं रहते वे मातापिता अपने बच्चों के ऐसे नाम रखते हैं। [३] कर्मनाम [४] शरीरनाम जो प्रशस्त और अप्रशस्त होते हैं अर्थात् शरीर के अच्छे - बुरे लक्षणों के अनुसार रखे जाते हैं, जैसे सण्ड, विकड, खरड, खल्वाट आदि दोषयुक्त नामों की सूची में खडसी, काण, पिल्लक, कुब्ज, वामणक, खंज आदि नाम भी हैं। यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्राकृत भाषा में भी नाम रखे जाते हैं। उसमें प्रशस्त नाम वे हैं जो वर्णगुण या शरीरगुण के अनुसार हों-जैसे अवदातक और उसे ही प्राकृत भाषा में सेड या सेडिल, ऐसे ही श्याम को प्राकृत भाषा में सामल या सामक कहा जायगा, ऐसे ही कृष्ण का कालक या कालिक । ऐसे ही शरीरगुणों के अनुसार सुमुख, सुदंसण, सुरूप, सुजान, सुगत आदि नाम होते हैं। [५] करण नाम वे हैं जो अक्षर - संस्कार के विचार से रखे जाते हैं। इनमें एक अक्षर, द्वि अक्षर, त्रि अक्षर आदि कई तरह के नाम हैं । द्विअक्षर - दो अक्षरों वाले नाम तीन प्रकार के होते हैं - जिनके दोनों अक्षर गुरु हैं, जिनका पहला अक्षर लघु और बाद का अक्षर गुरु, इनके उदाहरणों में वे ही नाम हैं जो कुषाणकाल के शिलालेखों में मिलते हैं - जैसे तात, दत्त दिण्ण, देव, मित्त, गुत्त, गूत, पाल, पालित, सम्म, यास, रात, घोस, भाणु, विध्दि, नंदि, नंद, मान और भी उत्तर, पालिन, रक्खिय, नंदन, नंदिक, नंदक ये नाम भी उस युग के नामों की याद दिलाते हैं जिन्हें हम कुषाण और पूर्वगुप्तकाल के शिलालेखों में देखते हैं। ___ इसके बाद वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को लेकर विस्तृत ऊहापोह की गई है किं नामों में उनका उपयोग किस-किस प्रकार किया जा सकता है। इस अध्याय के अन्त में मनुष्य नामों की कई सूचियाँ दी गई हैं जिनमें अधिकांश नाम कुशाणकालीन संस्कृति के प्रतिनिधि हैं । उस समय नक्षत्र-देवताओं के नाम से एवं नक्षत्रों के नाम से मनुष्य नाम रखने का रिवाज था । नक्षत्र --देवताओं के उदाहरणों में चंद [चन्द्र], रुद्द [रुद्र], सप्प [सर्प], अज्ज [अर्यमा], तट्ठा [त्वष्टा], वायु, मित्त [ मित्र ], इन्द [इन्द्र ], तोय, विस्से [विश्वदेव ], ऋजा, बंभा [ब्रह्मा, विण्हु [विष्णु], पुस्सा [पुष्य ] हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि उस समय प्राकृत भाषा के माध्यम से नामों का जो रूप लोक में चालू था, उसे ज्यों का त्यों सूची में ला दिया है; जैसे अर्यमा के लिये अज्जो और विश्वदेव के लिये विस्से । नक्षत्र नामों में श्रद्धा, पूसो, हत्थो, चित्ता, साती, जेट्टा, मूला, मघा-ये रूप हैं । दशार्ह या वृष्णियों के नाम भी मनुष्य नामों में चालू थे जैसे, कण्ह, राम, संब, पज्जुष्ण (प्रद्युम्न), भाणु । नामों के अन्त में जुड़ने वाले उत्तर पदों की सूची विशेष रूप से काम की है; क्योकि शुंग और कुषाणकाल के लेखों में अधिकांश उसका प्रयोग देखा जाता है, जैसे बात, दत्त, देव, मित्त, गुत्त, पाल, पालित, सम्म (शर्मन) सेन (सेन), रात (जैसे वसुरात), घोस भाग । नामों के चार भेद कहे हैं -प्रथम अक्षर लघु, अन्तिम अक्ष गुरु, सर्व गुरु एवं अन्तिम अक्षर लघु । इनके उदाहरण ये हैं - अमिजि (अमिजित् ) सवन (श्रवण), भरणी, अदिती, सविता, णिरिति (निक्रति ), वरुण । और भी कत्तिका, रोहिणी, आसिका, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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