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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
इसके यति विद्यमान थे। यह खरतर गच्छ की शाखा है।
लाटलद गच्छ -- लाटहूद नामक स्थान के नाम से ही यह प्रसिध्दि में आया है। इस गच्छ के पूर्णभद्र का प्रतिष्ठित एक धातु प्रतिमा लेख हमारे बीकानेर जैनलेख संग्रह में संग्रहित है जो लिपि की दृष्टि से ९ वीं शती का प्रतीत होता है ।
लंपक-लोकागन्छ --सं. १५३० के लगभग लोकाशाह नामक श्रावक से यह मत निकला। इसका मुख्य मतभेद जिन प्रतिमा की पूजा को न मानना है । लोकाशाह स्वयं दीक्षित नहीं हुए। इस मत का प्रचार पारख लखमसी व ऋ० भाणा के द्वारा हुआ। थोड़े समय में ही यह कई शाखाओं में विभक्त हो गया। यथा--
१. पारखमती- लखमसी पारख से यह नाम पड़ने का उल्लेख मिलता है। .
२. गुजरातीगच्छ - सं. १५४२ में रूपा गुजराती से यह शाखा निकली। जिसकी गद्दी अब भी बड़ौदा में है। इस शाखा की पट्टावली देशाई ने जै. गु. क. भा. ३ के परिशिष्ठ में संक्षेप से दी है।
३. उतराधी-सरोवामती-पूर्व परिचय दिया जा चुका है । ४. नागौरी--सं. १५८१ में नागौर के रूपचंद, हीरागर व सीचइ गांधी से यह प्रसिद्ध हुआ । इसके दो उपासरे बीकानेर में हैं, श्रीपूज्य नही हैं । इस गच्छ
की संस्कृत भाषा की पट्टावली हमारे संग्रह में है। ५. रामूमती
६. कउरउमती ७. सीहामती
८. नानिगमती ९. दरूगामती
१०. साकरमती ११. वीढ़ामती
१२. पासामिती १३. दीतामती
हमारे संग्रह के १७ वीं के उत्तरार्द्ध में लिखित पत्र में इन १३ समुदायों का उल्लेख है। इनमें अधिकतः ऋषियों व कुछ स्थानों के माम से प्रचलित हुई । विजय गच्छ भी वास्तव में इसी लोंका के समुदाय में से निकला है जिसका परिचय आगे दिया जायगा।
इसी मत में से सं. १७०० के लगभग लघजीऋषि से स्थानकवासी सम्प्रदाय निकला जोकि बहुत शीघ्र सर्वत्र फैल गया । संप्रदाय के प्रारंभ में २२ साधुओं का समुदाय होने से बाइसटोले कहलाये व शून्य-ढूंढे से स्थान में ठहरने से दढ़िया कहलाये । क्रमशः संख्या बढ़ने के साथ इनमें से अनेक संघाड़े हैं । अभी इस सम्प्रदाय के सैकड़ों साधु आर्यिकाएं व लाखों श्रावक विद्यमान हैं। इनकी अनेक शाखा, सम्प्रदायों के विषय में ऐतिहासिक नौंध देखना चाहिये । मंदिर को माननेवाले
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