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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
है, जो भी पुस्तकें आज संयोग और सौभाग्य से बची रह गई हैं, उनके सुरक्षित रहने का कारण प्रधान रूप से धर्म बुद्धि ही रही है। काव्यरसकी भी वही पुस्तकें सुरक्षित रह सकी हैं, जिनमें किसी न किसी प्रकार धर्म भाव का संस्पर्श रहा है। xxx इस प्रकार मेरे विचार से सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में त्याज्य नहीं मानना चाहिए।"। वस्तुतः आदिकालीन समस्त जैन हिन्दी कृतियाँ धार्मिक कहकर नहीं भुलाई जा सकतीं। धर्म और आध्यात्मिक के तत्त्व इनके मूल में प्रेरणा का कार्य करते हैं। श्री राहुल सांकृत्यायन तो अपभ्रंश की कृतियों को भी दृढकंठ से पुरानी हिन्दी ही घोषित करते हैं ।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि उपलब्ध साहित्य अपभ्रंश का परवर्ती साहित्य है, जो पुरानी हिन्दी कहा जा सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् श्री गुलेरीजीने 'पुरानी - हिन्दी' के अन्तर्गत आनेवाली परवर्ती अपभ्रंश की रचनाओं का विवेचन किया है। अतः उनके विचार से भी ये सब रचनाएं हिन्दी की पूर्ववर्ती स्थिति के रूप की प्रतिनिधि ही है । हेमचंद्र के दोहे, भोज और मुंज के पद्य, प्रबंध चिन्तामणि में वर्णित अनेक प्रसंग, तथा “कुवलयमाला" जैसे प्राकृत के ग्रन्थ में प्रासंगिक रूप में आये हुए अपभ्रंश गद्य ही इस साहित्य की पृष्ठभूमि के सबल परिणाम हैं । मुनिरामसिंह कृत पाहुड़ दोहा, स्वयंभू की रामायण, राजस्थानी साहित्य के आदिकाव्य "ढोला मारु रा दूहा” दामोदर शर्मा द्वारा लिखित 'युक्त-व्यक्ति-प्रकरण' तथा जूनी गुजराती की समस्त भाषाकृतियां हमारे आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य के मूलभूत तत्वों पर प्रकाश डालनेवाले अन्तरंग और बहिरंग प्रमाणों के स्रोत हैं। अपभ्रंश के चरितकाव्य भी एतदर्थ बड़े सहायक हैं । अपभ्रंश भाषा के परिवार में राजस्थानी को विद्वानों ने 'अपभ्रंश की जेठी बेटी कहा है । अतः प्राचीन राजस्थानी की समस्त सामग्री प्राचीन हिन्दी की ही कही जायगी। परन्तु राजस्थानी भाषा के साहित्य का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दी से ही नहीं है। एक ओर उसका अविच्छेद्य सम्बन्ध गुजराती से ही है। कभी कभी एक ही रचना को एक विद्वान् पुरानी राजस्थानी कहता है, तो दूसरा विद्वान् उसे जूनी गुजराती कह देता है। इस पुरानी राजस्थानी या जूनी गुजराती में दोनों ही प्रदेशों की भाषा के पूर्वरूप मिलते हैं। और प्राकृत और अपभ्रंश का रूप तो इन में मिला ही रहता है। अनेक जैन कवियों ने इस प्रकार के साहित्य की रचना की है। डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी और डॉ. एल. पी. टेस्सीटोरी ने १५ वीं शताब्दी के पूर्व की राजस्थानी और गुजराती भाषा को एक ही भाषा माना है। और गुजराती का
१. देखिए हिन्दी साहित्य का आदिकाल : आचार्य डॉ. हमारी प्रसाद द्विवेदी पृ. ११-१३. २. हिन्दी काव्य धारा : श्री राहुल सांकृत्यायन - भूमिका भाग. ३. देखिए पुरानी हिन्दी - चन्द्रधर शर्मा गुलेरी-नागरीप्रचारिणी सभा, संस्करण-पृ. ३-४. ४. हिन्दी साहित्य का आदिकाल : डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी पृ. ९.
५. देखिए-राजस्थानी भाषा - श्री सुनीतिकुमार चटर्जी, तथा प्राचीन राजस्थानी श्री डॉ एल. पी. टेस्सीटोरी-अनुवादक-श्री नामवरसिंह
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