________________
विषय खंड
आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य और उसकी विशेषताएँ
१०९
संवाद तथा लोकवार्तात्मक आदि अनेक प्रकार की रचनाएं उपलब्ध होती हैं । चाहे ये सब विषय आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में नहीं आते हों; पर मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य की तो ये कृतियां सम्पति हैं ही । इनमें से कुछ विषयों पर आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में भी आ जाते हैं । वस्तुतः इन रचनाओं का क्षेत्र बहुमुखी है । इन रचनाओं को मात्र धार्मिक मान लेना भी इनकी प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ है । वास्तव में धर्म को साहित्य से अलग मानकर चलना, साहित्यिक तत्वों की उपेक्षा करना है । ऐसी मान्यताओं को बिल्कुल युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता हैं । इस तरह यदि धार्मिक साहित्य कह कर रचनाओं की उपेक्षा की जायगी तो सूर, तुलसी, कबीर, मीरां आदि के धार्मिक साहित्य से हमें एकदम वंचित हो हाथ धोना पड़ेगा। अतः रचनाओं की उपेक्षा का यह आधार एकदम निर्मूल ही लगता है। आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की ये रचनाएं एकदम धार्मिक ही नहीं, अपितु साहित्यिक हैं । डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने ग्रन्थ 'आदिकाल के प्रथम प्रवचन' में ही स्पष्ट कर दिया है कि - " उपदेशविषयक उन रचनाओंको जिनमें केवल सूखा धर्मोपदेश मात्र लिखा गया है, साहित्यिक विवेचना के योग्य नहीं समझना ही उचित है। परन्तु +++ कई रचनाएँ ऐसी भी हैं कि जो धार्मिक तो हैं, किन्तु उनमें साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है। धर्म वहां कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है । जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हों, उससे वह साहित्य निश्चित रूप से भिन्न है । जिसमें धर्म-भावना प्रेरकशक्ति के रूप में काम कर रही हो, और साथ ही हमारी सामान्य मनुष्यता आंदोलित, मंथित और प्रभावित कर रही हो, इस दृष्टि
शि की कई रचनाएं जो मूलतः जैन धर्म-भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निःसंदेह उत्तम काव्य हैं । और 'विजयपाल रासो' और 'हम्मीर रासो' की भाँति ही साहित्यिक इतिहास के लिए स्वीकार हो सकती हैं । यही बात बौद्ध, सिद्धों की रचनाओं के बारे में भी कही जा सकती है । इधर कुछ ऐसी मनोभावना दिखाई पड़ने लगी है कि धार्मिक रचनाएं साहित्य में विवेच्य नहीं हैं । कभी-कभी शुक्लजी के मत को भी इस मत के समर्थन में उद्धृत किया जाता है । मुझे यह बात उचित नहीं मालूम होती । धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए । +++ x धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का यह 'रामचरित मानस' भी साहित्यक्षेत्र में आलोच्य हो जायगा, और जायसी का पद्मावत भी साहित्य-सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। x xx केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रन्थों को साहित्य-सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदि काव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा । 'तुलसी रामायण' से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा । मध्ययुग के साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्म-साधना ही रही
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org