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श्रीयतीन्द्रसूरि-अभिनन्दन ग्रन्थ
पृ. १४७ गुर्वावली कर्ताका नाम मुनिचन्द्रसूरि बताया है, लेकिन मुनिसुन्दरसूरि नाम मिलता है। पृ. १४७ में बताया है कि पूर्णतलगच्छका नाम त्रि. श. पु. चरित्र की प्रशस्ति में लिखा है, लेकिन वहाँ देखनेमें नहि आता है ।
पृ. १६१ में बताया है कि - 'स्तनपक्ष गच्छ- किसी पट्टावलीके अनुसार १३ वी में विद्यमान होना लिखा है, पर अन्य उल्लेख प्राप्त नहीं है' – वास्तविकमें अंचलगच्छ ( विधिपक्ष ) को इस नामान्तरसे सूचित किया है-- ऐसा समझना चाहीए ।
पृ. १६१ में बताया हुआ पुरंदरगच्छ नाम कैसी भ्रान्तिसे प्रचलित हुआ है, इसका स्पष्टीकरण करना यहाँ उचित है। राणकपुरतीर्थ - प्रासादकी प्रतिष्ठाका जो विस्तृत सं. १४९६ का सं . शिलालेख वहाँ है, उसमें प्रतिष्ठा करनेवाले बृहत्तपागच्छके सोमसुंदरसूरिजीके जो विशेषण दिये हैं, उसमें 'परमगुरुसुविहितपुरंदरगच्छाधिराज' को नहि समझने से, विचित्र पदच्छेद करनेसे प्रचलित हुआ है। वहाँ परमगुरु, सुविहित- पुरंदर, गच्छाधिराज ऐसे विशेषण, पहिले शिलालेख प्रकट करनेवाले नहि समझें, फिर उसकी नकल करनेवालोंने इधर उधर उल्लेख किया है।
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पृ. २६,२१३ में उमास्वामी नाम आता है, प्राय: दिगम्बर- समाजमें उमा+स्वामी ऐसी समझसे प्रचलित है, वास्तविकमें स्वातिके तनय होनेसे तत्त्वार्थ सूत्रकारका नाम उमा-स्वाति उचित मालूम होता है । सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने अपने शब्दानुशासन के ' उत्कृष्टेऽनूपेन' २-२ - ३९ सूत्र के उदाहरण में 'उपोमास्वातिं संग्रहीतारः ' सूचित कर न्यासमें भी उमास्वाति नामका समर्थन किया है। वहाँ बृहद्वृत्तिके नीचे ur ३१ में प्रकाशित न्यासमें इस तरह उल्लेख है- “उमां कीर्ति सुष्ठु अतीत ' पादाच्चात्य जिभ्याम्' इति इः णित् । यद्वा उमा कीर्तिः स्वातिरिवोज्ज्वला यस्य, यद्वा उमा माता, स्वातिः पिता; तयोर्जातत्वात् पुत्रोऽप्युमास्वातिः । "
पृ. २२९ में लेखक ने बताया है कि- " आचार्य हेमचन्द्रका 'योगशास्त्र प्रकाश ' है । इसमें योगका अर्थ न तो ध्यान है और न ध्यानकी पद्धति । ग्रन्थमें धर्मात्माओंके नित प्रति कर्तव्यके लिए धार्मिक उपदेश ही सुभाषित वाक्योंके रूपमें दिये गये हैं । "
- मालूम होता है, लेखकने सावधानतासे यह ग्रंथ पूरा देखा नहि होगा- इसकी वजह से वहाँ नाम 'योगशास्त्र प्रकाश' और उसका प्रकाशन-स्थल जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर बताया है। उसका वास्तविक नाम ' योगशास्त्र' है, वह १२ प्रकाशों में विभक्त है । मूल ग्रन्थ वाक्यों में नहि, श्लोकोंमें है, उसके उपर अपनी स्वोपज्ञ वृत्ति बारहजार श्लोक-प्रमाण है, वृत्तिके साथ वह ग्रन्थ श्रीजैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगरसे सं. १९८२ में प्रकाशित है । सूरिजीने योगको मोक्षका कारणभूत बता कर, उसको ज्ञान, श्रद्धान और चारित्ररूप रत्नश्रयरूप जरूर बताया है, तदनुसार उसके साधक अधिकारीका स्वरूप दिखलाते गृहस्थ-- धर्म, साधु-धर्म आदिका वर्णन किया है। उसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि आदि प्राचीन अष्टांग योगका स्वरूप भी है, गौरसे देखे ।
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