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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र
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जाता मेरा यह काम सफल नहीं होता। अब उन के स्थान पर जावेगें उन्हें तैल सिन्दूर चढावेंगे जुहार करेगें। अब की बार पूजा अच्छी तरह करेगें तो फिर कभी वे हमारा काम झट कर देंगे या प्रार्थना करने पर स्वप्न में आकर फोचर का अंक चतादे, तो हम लखपति हो जायेंगें" ऐसे भ्रामक एवं वृथाप्रलाप को सुन कर मैं सोचता हूं, हा? क्या अज्ञान की लीला है। इन भ्रान्त धारणाओं के वर्तुल में फस कर हम अपने जीवन को कलंकित करते हैं। प्राप्त धन एवं शक्ति का अपव्यय करते हैं। आत्म साधना से भी वंचित रहते हैं। वीतराग को अपना आराध्य भानने वालों एवं सुदेव, सुगुरु, और सुधर्म को मानने वालों की यह विचार धारा आश्चर्य ? महदाश्चर्य ? ? अर्हन् । अर्हन् ।
हम मंत्रों के लिए तथाकथित मंत्रवादियों से प्रार्थना करने से पहले उन मन्त्रवादियों के जीवन का अवलोकन करेंगे तो, उनका जीवन इन भ्रामक ढकोसलों से पतित हुआ ही दिखेगा । उदर पोषण के लिये कष्ट पूर्वक अन्न मिलाते होवेंगे । पांच दस रुपयों में भक्तों को मंत्र यंत्र देने वाले वे भक्तों के शत्रुओं को परास्त करने की
था डींग हाँकते हैं । भक्तों को धनधान्य से प्रमुदित करने वाले वे क्यों पांच दस करुयों के मूल्य में मंत्र बेचते हैं ? उन्हें क्या आवश्यकता है पांच दस की ? क्यों न वे मंत्रों के बल आकाश से सोना बरसाते ? क्यों वे रोगों से आक्रान्त होते है ?
आदि प्रश्नों के उचित एवं संतोषप्रद उत्तर मंत्रवादियों के पास नहीं है । यदि हम ही स्वयंमेव इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त करने की प्रवृत्ति करते हैं । तो हम को चिन्तन का नवनीत यही मिलेगा कि जो बल जो श्रद्धा जो सामर्थ्य हमारी भावना में है । वह किसी में भी नहीं । हम सोचते रहे जगद् भर की बुराई तो हमारी भलाई होगी कैसे ? समुद्र के विशालकाय मत्स्यों की भोंहो में या कान पर चावलों के दानें जितनी काया वाला तन्दूल नाम का अतिछोटा मत्स्य होता है। वह अपने नन्हें से जीवन में रतिमात्र मांस नहीं खाता और न खुन की एक बूद भी पीता है । वह किसी को किसी प्रकार का दुख भी नहीं देता, परन्तु उन विशाल काय मत्स्यों की भोंहों पर बैठा वह हिंस्र विचारों मात्र से ही नरक जैसा महाभयंकर यातनास्थान प्राप्त हो वैसा वन्ध प्राप्त करता है, और अन्तरर्मुहूर्त का जीवन समाप्त कर उस स्थान को प्राप्त भी हो जाता है । अतः हमारे शास्त्रकारों ने तभी तो उद्घोषणा की है कि -"अप्पा कत्ता विकत्ता य" याने आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही भोका है, और "यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी"। अपने हाथों ही अपने पैर को काटकर और सोचना की इस होती हुई पीड़ा का अनुभव कोई अन्य करे, यह कैसे संभव हो सकता है ? जिसने जैसे किये हैं, उसको तदनुसार ही फल प्राप्त होगा।
खेद का विषय है कि हम शास्त्रों और शास्त्रकारो के निर्दिष्ट मार्ग को छोड कर जिस प्रकार पागल वास्तविक को छोड़ कर अवास्तविक की ओर जाता है वैसे
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