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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र पनिषद्भूतमशेष विघ्न विघातनिघ्नमखिलद्दष्टाद्दष्ट संकल्पकल्पद्रुमोपमं, शास्त्राध्ययनाध्यापनावधि प्रणिधयम्"
__ 'अहम्' ये अक्षर परमेश्वर परमेष्ठि के वाचक हैं । सिद्धचक्र के आदि बीज हैं। सकलागमों के रहस्य भूत हैं, सब विघ्न समूहों का नाश करने वाले हैं । सव द्दष्ट याने राज्यादि सुख और अद्दष्य याने संकल्पित अपवर्ग सुख का अभिलषित फल देने में कल्पद्रुम के समान हैं । शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन के आदि में इसका प्रणिधान करना चाहिये । अर्हत् का महत्व दिखलाते हुए आचार्यश्री ने योगशास्त्र में भी फरमाया हैं कि
अकारादि हकारान्तं, रेफमध्यं सबिन्दुकम् ।। तदेव परमंतत्वं, यो जानाति स तत्व वित् ॥ महातत्वमिदं योगी, यदैव ध्यायति स्थिरः ।
तदेवानन्दसंपद्मूमुक्ति श्री रूपतिष्ठते ॥ जिसके आदि में अकार है । जिसके अन्तमें हकार है । बिन्दुसहित रेफ जिसके मध्य में है। ऐसा अहम मंत्रपद है। वही परमतत्व है । उसको जो जानता है-समझता है वही तत्वज्ञ है। जब योगी स्थिर चित्त होकर इस महातत्व का ध्यान करता है, तब पूर्ण आनंद स्वरूप उत्पतीस्थान - रूपमोक्ष-विभूति उसके आगे आकर प्राप्त होती है। वाचक प्रवर श्रीमद् यशोविजयजी भी फरमाते हैं कि -
अर्हमित्यक्षरं यस्य चित्ते स्फुरति सर्वदा परं ब्रह्म ततः शब्द ब्राह्मणः सोऽधिगच्छति ॥२७॥ परः सहस्त्राः शरदां, परे योगमुपासताम् । हन्तार्हन्तमनासेव्य, गन्तारो न परं पदम् ॥२८॥ आत्मायमर्हतो ध्यानात् परमात्मत्वमभुते । रसविद्धं यथातानं स्वर्णत्वमधिगच्छति ॥२९॥
(द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका) अर्हम् ऐसे अक्षर जिसके चित्त में हमेशां स्फुरायमान रहते हैं । वह इस शद ब्रह्म से परब्रह्म (मोक्ष) की प्राप्ती कर सकता है । हजारों वर्षों पर्यन्त योग की उपासना करनेवाले इतर जन वास्तव में अरिहंत की सेवा किये बिना परम पद की प्राप्ती नही कर सकते । जिस प्रकार रस से लिप्त तांबा सोना बनता है । उसी प्रकार अरिहंत के ध्यान से अपनी आत्मा परमात्मा बनती है ।
कितने ही लोग 'नमो अरिहंताणं' यह सप्ताक्षरी मन्त्र और कितने ही लोग अरिहंत, सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' इस षोडशाक्षरी मात्र का स्मरण करते
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