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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र
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जिससे वे पूजन के योग्य हो जाती हैं। कर्म आत्मा के दुश्मन थोडे ही हैं जो उनका हनन किया जाता है ?
क्या हम आत्मा के शानादि गुणों के घातक कर्मों को धातक नहीं मानते ? जो कह दिया जाता है कि कर्म आत्मा के दुश्मन नहीं हैं। कैसे नहीं हैं ? यहीं समझ नहीं पड़ती। शास्त्रकारों ने तो कर्मों को आत्मा के दुश्मन कहा ही है। क्यों कि कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों को आवरित जो करते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि“कम्मरि जएण सामाइयं लब्भति"
श्री आवश्यक' सूत्र चूर्णि १ : अ. “ कामक्रोधलोभमानमोहाख्ये आन्तरशत्रषटे"
श्री सूयगडांग' सूत्र । रागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्म शत्रु जितवन्तो जिनः"
श्री जीवाभिगमसूत्र' २ प्रतिपत्ति निघ्नन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्रासोऽसि शमसौहित्य, महतां कापि वैदुषी ॥१॥ अरक्तो भुक्तवान्मुक्तिमद्विष्टो हतवान्द्विषः अहो ? महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभ ः ॥२॥
श्री वीतराग स्तोत्र ११ वाँ प्रकाश । यदि हमारे यहाँ कर्मों को आत्मा के शत्रु नहीं माने जाते तो उक्त प्रमाण आते कहा से? इन शत्रुओं को पराजित करने वाली आत्मा को हम अरिहंत कहते हैं। जो आत्मा कभी संसार में उत्पन्न होने वाली नहीं है। जिसने संसारके कारण भूत कर्मों को निर्मूल कर दिया है, वे अजन्मा अर्थात् सिद्ध है। याने अरुह हैं। अरुह यह नाम सिद्ध भगवान का होने से अघनघाति चार कर्म शेष हैं जिनके ऐसे अरिहंत का यह नाम नहीं हो सकता । नाम गुण निष्पन्न होना चाहिये । अतः इसी नियमानुसार अरिहंतों का अरिहंत यह नाम गुण निष्पन्न और सार्थक होने से नमस्कार मंत्र के आदि के पद में यही आया है न कि अरहंताणं और अरुहंताणं ।
प्रश्न:-अरिहंतों की अपेक्षा सिद्ध भगवान आठों कर्मों पर विजय करके चरम आदश को प्राप्त कर चुके हैं । अतः अरिहंतों से पहले सिद्धों को नमस्कार करना चाहिये न ? तो फिर अरिहंतों को पहले नमस्कार क्यों किया गया ?
१ श्री अभिधान राजेन्द्र कोश तृतीय भाग पृ. ३४१ २ श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रथम भाग पृ. ७६१ ३ श्री अभिधान राजेन्द्र कोश चौथा भाग पृ १४५९
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