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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र
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प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग बनती हैं, जिन्हें हम अरिहंत, जिन, जिनेन्द्र आदि अनेक गुण निष्पन्न नामों से पहचानते हैं । ऐसे श्री तीर्थकर -अरिहंतों के चार मुख्य अतिशय, आठ महाप्रातिहार्य, चौतीस अतिशय तथा उनकी वाणी के पैतीस अतिशय होते है । जो क्रमशः इस प्रकार है :
चार मूल (मुख्य) अतिशय___१ शानातिशय-अरिहंत भगवान जन्म से ही मतिश्रुत और अवधिशान से युक्त होते हैं । दीक्षा ग्रहण करते ही चौथा मनःपर्यव शान और धनघाती कमों का क्षय होने पर केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है । जिस से विश्व के सब पदार्थों को देखकर, भूत भविष्य और वर्तमान के समस्त भावों को यथावत् जानना तथा उनका यथार्थ व्याख्यान करना. शानातिशय है।
___२ वचनातिशय -सुर मनुष्य तिर्यंचादि समस्त जीवों के समग्र संशयों को एक साथ दूर करनेवाली परम मधुर शान्तिप्रद उपादेय तत्वों से युक्त ऐसी वाणी, जिसके श्रवणसे कर्मोंसे सन्त्रस्त जीवों परम आल्हाद एवं सुख को बिना परिश्रम प्राप्त कर सकते है, यानेसब प्रकार से उत्तम तथा जो जिस भाषा का भाषी. हो उसको अपनी उसी 'भाषामें समझ पड जाय ऐसी जो भगवद् वाणी उसके अतिशय को वचनातिश कहते हैं।
___३ पूजातिशय -सुरासुरनर और उनके स्वामी. [इन्द्र राजा] जिन. की पूजाकर के अपने पाप धोते हैं। वह पूजातिशय है।
४ अपायापगमातिशय :- श्री अरिहंत भगवान जहां जहां विचरण करते हैं वहां वहां से प्रायः सवा सौ सवा सौ योजन. तक किसी को किसी प्रकार के कष्ट प्राप्त न हों और जो हों वे भी नष्ट हो जाय तथा अतिवृष्टि अनावृष्टि एवं परचक्र भयादि समस्त उपद्रव दूर होते है। वह अपायापगमातिशय है।
आठ प्रातिहार्य - अशोक वृक्षःसुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च ।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ अशोक वृक्ष, देवताओं के द्वारा पंचवर्ण सुगंधी फूलों की वर्षा, दिव्यध्वनि, देवों द्वारा चवरों का ढोना, सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभि और छत्र, ये आठ प्रातिहार्य जिनेश्वरों के होते हैं।
१-२- तेषामेव. स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् ।
अप्येक रूपं वचनं, यत्ते. धर्मावबोधकृत् ॥ ३ ॥
साऽपि योचनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदा : । यदजसा विलीयन्ते, त्वद्विहारानिलोमिभि: ॥४॥
( श्रीवीतराग स्तोत्र तृतीय प्रकाश )
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