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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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अठविहं पि य कम्मं, अरिभूयं होइ सम्व जीवाणं । तंकम्ममरिहंता, अरिहंता तेण वुच्चंती ॥ अरिहंति वंदण नमसणाण अरिहंति प्य सक्कारं । सिद्धि गमणं च अरिहा. अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ देवासुरमणुए सुय, अरिहा पुया सुरुत्तमा जम्हा ।
अरिणो हंता अरिहंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ " अप्रशस्त भावों में रमण करती इन्द्रियों द्वारा काम भोगों की चाहना को, तथा क्रोध मान माया और लोभादि कषायों, क्षुधा, तृषादि बाईस परिषहों, शारिरीक और मानसीक वेदनाओं के उपसर्गों का नाश करने वाले, सब जीवों के शत्रुमूत उत्तर प्रकृतियों सहित ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का नाश करने वाले, वन्दन और नमस्कार, पूजा और सत्कार के योग्य हों, और सिद्धि (मोक्ष) गमन के योग्य हों, सुरासुरनरवासव पूजित तथा आभ्यन्तर अरियों-शत्रुओं को मारनेवाले जो हों वे अरिहंत कहलाते हैं । श्रीमद् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी विशेषावश्यक भाष्य में लिखते है कि :
“रागहोस कसाए य, इन्दियाणी पंच वि परिसहे ।
उवसग्गे नामयंता. नमोऽरिहा तेण वच्चंति ॥" - राग, द्वेष और चार कषाय, पांचों इन्द्रियां तथा परिषहों को झुकानेवाले अर्थात् इनके सामने स्वयं न झुकनेवाले, अपितु इन्हें ही झुकाने वाले अरिहंत कहलाते हैं । उनको नमस्कार हो।
___ "सर्वशो जितरागादि दोषस्त्रैलोक्य पूजितः
यथा स्थितार्थवादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः॥४॥' जो सर्वज्ञ हैं, जिन्होंने रागादि दोषों को जीता है, जो त्रैलोक्य पूजित हैं, जो पदार्थ जैसे है. उनका यथार्थ विवेचन करते हैं, वे दे कहलाते हैं।
(श्रीमद् हेमचन्द्रसूरि-योगशास्त्र द्वि. प्र.) इस प्रकार बहुश्रुत पूर्वाचार्यों ने विविध प्रकार से अरिहंत शब्द का अर्थ अनेक ग्रन्थों में किया है । अरिहंत बननेवाली आत्मा पूर्वभवों में अपने जैसी ही सामान्य आत्मा होती है। परन्तु अरिहंत बनने से पूर्व यों तो अनेक भवों से वे आत्मसाधना में मग्न रहती हैं । तथापि अरिहंत वीतराग बनने से तीसरे पूर्वभव में विंशतिस्थानक महातप की आराधना कर के तीर्थकर नामकर्म निकाचित रूप से बांधकर देवलोक, प्रैवेयक अथवा अनुत्तर विमान में मध्यभव करके पुनः मनुष्यलोक में शुभकर्मा माता पिता के यहाँ जन्म लेकर जिनका सुरासुरेन्द्रों ने च्यवन, जन्म, दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया है, ऐसी वे चारित्र धर्म अंगीकार करके आत्मा के जो शानावरणीयादि आभ्यन्तर शत्रु हैं, उनको निजबल पराक्रम से परास्त करके केवलमान-क्षेबलदर्शन
रमेश्वर
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