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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
असावधानी से अगर चींटी भी मरती तो चिन्ता की बात है पर अनजान में अगर हाथी भी मरता तो खास चिन्ता नहीं है । जैन धर्म में विवश हो कर हिंसा करने का विधान केवल गृहस्थों के लिये है पर मुनियों, यतियों, साधुओं, उपाध्यायओं
और आचार्यों तथा अर्हन्तों के लिये कदापि नहीं है । ये तो 'छहढालो' के प्रणेता दौलतरामजी के शब्दों में जल में भिन्न कमल से होते हैं, और अवतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन होते हैं । इनके जीवनका ध्येय लोक की अपेक्षा अलोक में अधिक होता है। इनका जीवन समभाव की साधना लिये इतना अधिक अहिंसामय होता कि जितना भी इस दिशा में शक्य और सम्भव होता है ।
मानव-जीवनकी महत्ता श्रेष्ठ कार्यो के करने में है, परोपकारी और अहिंसक बनने में है । सन्त तुकाराम के शब्दों में- 'जिस मानव - जीवन को पाने के लिये स्वर्ग के देवता तरसते हैं' वही मनुष्य का दुर्लभ जीवन (जो धर्माचार्योंके मत से ८४ लाख योनियों में बड़ी कठीनाई से मिला) अगर दूसरों के प्राण हरण के लिये अणुबम और उदजन बम जैसे विध्वंसक सस्त्र बनाने में बीत जावे तो इससे बढ़कर और क्या दुर्भाग्य की बात होगी ? यह तो वैसा ही प्रयत्न होगा, जैसे कोई खेत में अनाज खाते हुए कौवे को माण फेंक कर भगावे ।
हमें अपने जीवन को जितना भी हो सके उतना अहिंसक और अपरिग्रही बनाना चाहिये ताकि विश्वकी विषमता समाप्त हो और सुख-शान्ति एवं समृद्धिकी सम्भावना हो । यद्यपि काका कालेलकर के इन शब्दों को सभी जानते, 'बिनाविशेष श्रम किये हम अहिंसक नहीं बनेंगे और न बिना त्याग किये अपरिग्रही ही बनेंगे' तथापि आज के समाज में लोग इनसे उलटी ही प्रवृत्तियां लिये हैं । एक ओर लोग पैसे के पीछे पागल हो रहे, पेसे को बिना तिलक का भगवान बना रहे और इतने भौतिकवादी बन रहे कि लोकायतका अनुयायी भी शरमा जावे और दुसरी ओर मांसाहार करते हुये कह रहे-'गाय में तो आत्मा ही नहीं, अण्डा तो दुध सा पवित्र है, पर ऐसे लोग अब अधिक दिनोंतक विचारों की दृष्टिमें बुद्धिमान रहने वाले नहीं हैं । इधर कुछ लोग क्षमा और बिनय की जननी अहिं को कायरता ही समझ बैठे हैं पर वे भी मेरे लेखे विवेक शील नहीं हैं क्यों कि अहिंसा की आराधना करने के लिये कितना बल चाहिये ? यह तो कोई विरला लोकोत्तर महा पुरुष ही बतला सकेगा, कोई सामान्य आदमी नहीं ।
आज क युग में 'आहिंसाही क्यों और कैसे ? आज विश्व तीसरे महायुद्ध के द्वार पर खडा है । लोग युद्धसे घबडा गये हैं और विश्व शान्ति के इच्छुक हैं । इस दशा में अणुबम और उदजनबम के भय को अहिंसा और प्रेम के अमोघ अस्त्र द्वारा ही मिटाया जासकता है, न कि उदजनबमसे भी अधिक उत्तेजक अन्य विध्वंसक बमकी सृष्टि करके । अब हमें बम नहीं चाहिये बल्कि बम का विचार ही खत्म करनेवाली अहिंसा चाहिये । वह अहिंसा
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