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विषय खंड
अहिंसा का आदर्श
'किसी के निरर्थक प्राण न लो' परवे भी किसी खास ऋतु में किसी खास पक्षी का मांस न खाने की आज्ञा मात्र देते हैं । यों इन्होंने अहिंसा को समझने की चेष्टा मात्र की है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा गौतमबुद्ध ने भी 'महावग्ग' में कहा-'इरादा पूर्वक किसी को मत सताओ" परन्तु वे ही विनय विटक' में प्रकारान्तर से मांस खाने की आशा देते हैं और खुद्द भी खाकर एक बार तो अतिसार के रोगी होते हैं। यों वे हिंसा का भी अहिंसा से समझौता किये हैं । जहाँ हिन्दू धर्म के प्रामाणिक मान्य ग्रन्थ भनुस्मृति में मनु ने निम्नलिखित आशयका श्लोक लिखा-" जिसका मैं मांस खा रहा हूं, वह बदले में मुझे खावेगा।" इस अभिप्राय में प्रयुक्त 'मांस भक्षयिता' इस शब्द समूह में पाये जाने वाले मांस इन शब्दों से मांस बना है। अतः उन्होंने अहिंसा धर्म पर जहाँ सुदृढ आस्था प्रकट की वहाँ हिन्दू संस्कृतिके मूल स्रोत ऋग्वेद में इसके विरोधमें कहा गया
वर्गकामो यजेत् पशुमा लम्मेत" अर्थात् स्वर्गका इच्छुक यज्ञ करे और पशु-वध करे । यद्यपि इसके विरोधीवचन भी वेदों में मिलते हैं तथापि अनेक हिन्द आचार्यों की अहिंसा पर अपार आस्था ही रही हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता और इसी का परिणाम है, जो आज हिन्दूसमाज में मांसाहार प्रचलित है, और शिकार खेलना, युद्धकरना तो क्षत्रियों के जीवन का गौरव समझा जाता रहा है । इस दिशा में महर्षि वशिष्ठ की अहिंसा भी अविस्मरणीय बनी है । उन्होंने स्वयं राक्षसों का वध नहीं किया पर दशरथसे यज्ञ-रक्षाके लिये राम-लक्ष्मण को मांग लिया, और उनसे यज्ञ में विघ्न करनेवाले राक्षसोंको मरवा डाला । कहना न होगा कि महर्षि वशिष्ठ भी अपूर्ण अहिंसक हैं और प्रेरणा दिये हिंसा के समर्थक हैं पर ऐसी बातें जैन धर्मने नहीं कहीं और न उसके प्रसारक किसी तीर्थकरने ही ऐसी देशना की। तीर्थंकरों की तो बात जाने दें पर अन्य आजतक के आचार्योंने भी देश-काल-सम्प्रदाय आदिकी बातोंको सोचकर भी मूलभूत बातों में कोई फेरफार नहीं किया, उसीका परिणाम है, जो आज जैन समाज दिगम्बर-श्वेताम्बर, तेरह-बीस पन्थ, स्थानकवासीमंदिरमार्गी सदृश अनेक भेद-प्रभेदों में बँट जाने परभी अहिंसा पर अपार आस्था रखे हैं । यह देखकर हमें आज से ढाई हजार वर्ष पहले कहे गये, भगवान महावीरके निम्नलिखित वे वचन जो दशवैकालिक में संग्रहीत हैं; बरबस याद हो आते हैं
धम्मो मंगल मुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो ।
देवा तितं नमस्संति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ अर्थात् अहिंसा (दया) संयम (दमन) तवरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है । जो इस मार्गपर चलते हैं, देवलोक भी उन्हें नमस्कार करते हैं। इसी दिशा में एक आचार्यने तो आगे बढ़कर यहाँतक कहा-“वीतरागदेव ने प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा रूप एकही व्रत मुख्य कहा है और शेष व्रत तो उसकी रक्षाके लिये ही
१ मांस भक्षयितामुत्र यस्यमासदिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांप्सत्वं प्रवदन्ति मनीषिण : ॥
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