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-~->>सम्पादकीय - B परिवर्तनशील इस संसार में प्रत्येक आत्मा को स्वकर्मानुसार मानव-देह धारण
कर, आयुष्य कर्म जितना हो-पूर्ण कर यहाँ से प्रयाण करना पड़ता है; परन्तु ॐ महान् आत्माओं के जीवन कुछ अनोखी सुगंध फैलानेवाले होते हैं । उनके चले जाने पर ॐ भी उनकी स्मृति हमेशां वैसी ही बनी रहती है । क्यों कि वो अपने जीवनकाल
अन्तर्गत स्वयं को शान तेज पुञ्ज से आलोकित किया करते हैं और पश्चात् अखिल विश्व
को उसी प्रकाश से प्रकाशित करने के लिये कटिबद्ध रहते हैं उनकी प्रखर प्रभा से सभी • अपना ध्येय साधन करते हैं । महान् आत्माएँ इस जगत् को अपने वाणी, विचार और ॐ व्यवहार की ऐक्यता से श्रेयस्कर पथारूढ करते हैं एवं मानव-समाज के वर्तमान और वतिष्यमाण को सुधार देते हैं।
वयोवृद्ध वर्तमान जैनाचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म० भी धैसी ही विभूॐतियों में से एक हैं । जिन्होंने कि बाल्यावस्था से ही सभी स्नेही, सम्बंधियों का त्याग
कर अपने मार्ग को बदल दिया । भौगिक परम्परा से अलग होकर यौगिक परम्परा को - अपना लिया। ॐ अपने श्रेय के लिये । स्व० प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म० के शुभकर • कमलों से कल्याणकारी परम पावनी भागवती प्रवज्या को अंगीकार कर झान, ध्यान
और तपश्चर्या से जीवन को निर्मल बनाया जो आपके ६१ वर्षों के दीर्घ दीक्षा पर्याय से। उद्घोषित होता है । इस अवधि में आपने मानव समाज की उन्नति के लिये जो कार्य किये हैं वे अवर्णनीय है। आपकी साहित्य सेवा इतिहास पृष्ठों पर हमेशा के लिये or स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगी। & ऐसे उपकारी महान पुरुषों का सन्मान करना प्रत्येक सभ्य समाज का परम कर्तव्य र हो जाता है, क्यों कि इस प्रकार समूचे जीवन को इस ओर ही समर्पित करनेवाले विरल व्यक्ति ही पाये जाते हैं।
सं. २०१३ ज्येष्ठ वदि ५ को बड़नगर में अर्धशताद्वि उत्सव का निर्णय करने के @ लिये आयोजित किये गये अ० भा० राजेन्द्र समाज के प्रथम अधिवेशन में अर्धशताद्वि
उत्सव के निर्णय के साथ ही साथ मुनिराजश्री-विद्याविजयजी एवं मुनिमण्डल के मार्गदर्शन से उपस्थित प्रतिनिधियोंने वर्तमानाचार्यश्री को भी अभिनन्दन ग्रन्थ अर्पित करने @ का शुभ निश्चय किया । अर्थशतादि उत्सव को समाज ने सानन्द सम्पन्न किया, उस
अवसर पर स्व० गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. को स्मारक ग्रन्थ समर्पित किया गया। ॐ पश्चात् अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना तैयार की गई और उसका सम्पादन कार्य हमें दिया गया । यद्यपि यह कार्य हमारी शक्ति के बाहर का था परन्तु फिर भी हमारे सहयोगी मुनिवर एवं विद्वानों के अमूल्य सहकार से हम इस कार्य को संपूर्ण कर सके है और ग्रन्थ का कलेवर सुन्दर एवं पठनीय, मननीय सामग्री देने का प्रयास किया &008888888886 (पीछे चालु) 8888888888600
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गया है।
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