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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व विशाल है। कवि ने इस ग्रन्थ में केवल 'राजा-नो-द-द-ते-सौ-ख्य-म्' (राजा नो ददते सौख्यम्)-- इन आठ अक्षरों के १०,२२,४०७ (दस लाख, बाईस हजार, चार सौ सात) अर्थ करके एक अद्वितीय अनेकार्थ कोश बनाया है। साहित्य-सागर में यह ग्रन्थ एक अद्वितीय मुक्तासम्पुटवत् है। मूलतः कवि ने दस लाख से अधिक ही अर्थ किये थे, लेकिन बाद में उन्होंने असम्भव या योजनाविरुद्ध अर्थों को निकाल कर कुल आठ लाख अर्थ ही ग्रन्थबद्ध किये, जिसका उन्होंने 'अष्टलक्षी' नाम रखा।
भारतीय साहित्य में अनेक अनेकार्थी कृतियाँ मिलती हैं। जैन आम्नाय में भी समय-समय पर अनेकार्थी साहित्य लिखा जाता रहा है। लगभग ३० कृतियों का उल्लेख तो हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने भी किया है, लेकिन इतने छोटे वाक्य के हजार से अधिक अर्थ समयसुन्दर को छोड़कर अन्य किसी विद्वान् ने नहीं किये हैं। कतिपय अनेकार्थ-कोषों का उल्लेख कवि ने भी किया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि ने अपना कोश बनाने से पूर्व उन कोषों का भी अध्ययन किया होगा। वे हैं -
___अभिधान चिन्तामणि नाममाला-कोष, धनंजय-नाममाला, हेमचन्द्राचार्य कृत अनेकार्थसंग्रह, तिलकानेकार्थ, अमर एकाक्षरी-नाममाला, विश्वम्भू एकाक्षरी-नाममाला, सुधा-कलश-एकाक्षरी-नाममाला, वररुचि निघंटु-नाममाला आदि।
कवि ने अष्टलक्षी ग्रंथ के अतिरिक्त अनेकार्थी गीतों और स्तोत्रों की रचना की है, जिनका विवरण हम आगे प्रस्तुत करेंगे।
यह अभूतपूर्व ग्रंथ प्रो० हीरालाल र० कापड़िया के सम्पादकत्व में पाठान्तरसन्दर्भ-सहित श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, मुम्बई की ओर से मुद्रित हुआ है। १.३ मंगलवाद
__ प्रस्तुत ग्रन्थ न्यायशास्त्र से सम्बन्धित है। इसमें मंगल के प्रयोजन के विषय में विस्तृत विचार किया गया है। न्यायशास्त्र में मंगल के प्रयोजन के विषय में दो मत हैं - १. मंगल से ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति होती है, २. मंगल से ग्रन्थ-निर्माण में सम्भावित विघ्नों का विनाश होता है। प्रथम पक्ष के अनुसार ग्रन्थ-समाप्ति मंगल का मुख्य फल
और विघ्न-विनाश गौण फल है। द्वितीय मत के अनुसार विघ्न-विनाश ही मंगल का एकमात्र फल है। समाप्ति के साथ मंगल का कोई कार्य-कारण-सम्बन्ध नहीं है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में मंगल-संबंधी उक्त दोनों मतों का सविस्तार निरूपण करते हुए मंगल के तीन प्रकारों - शारीरिक, वाचिक और मानसिक का वर्णन किया गया है। इसी सन्दर्भ में केशव मिश्र की 'तर्कभाषा' में मंगल का उल्लेख न होने पर भी ग्रंथकार द्वारा मानसिक रूप में मंगल किये जाने का समर्थन किया गया है। १. द्रष्टव्य – अनेकार्थ-रत्न-मंजूषा, प्रस्तावना, पृष्ठ ९-१२
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