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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ ७५ यह कृति कवि समयसुन्दर की विद्वत्तापूर्ण कृतियों में प्रमुख मानी जाती है । इसकी रचना के सम्बन्ध में भी एक विशिष्ट घटना का उल्लेख प्राप्त होता है । उपाध्याय रूपचन्द्र (रत्नविजय) द्वारा लिखे गये एक पत्र के अनुसार किसी विद्वान् ने बादशाह अकबर की विद्वत्सभा में 'एगस्स सुत्तस्स अणंतो अत्थो' अर्थात् एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं इस जैनागमिक उक्ति को उद्धृत कर जैनियों की खिल्ली उड़ाई। यह बात महोपाध्याय समयसुन्दर को बुरी लगी । इसके प्रत्युत्तर में ही उन्होंने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया, ताकि जैनागमिक उक्ति की सत्यता एवं सार्थकता को प्रमाणित किया जा सके। अतः इस ग्रन्थ में कवि का प्रशस्त पाण्डित्य ही प्रदर्शित हुआ है। सम्राट् अकबर ने वि० सं० १६४९ में काश्मीर- विजयके लिए प्रयाण कर प्रथम दिन अर्थात् वि० सं० १६४९, श्रावण शुक्ला १३ को राजा श्री रामदास की वाटिका में निवास किया । वहाँ कवि ने अनेक सामन्तों और विद्वानों की सभा के मध्य इस ग्रन्थ को सुनाकर अपने धर्म-ग्रन्थों के वाक्य की सत्यता को प्रमाणित किया । समयसुन्दर का कथन है कि इस ग्रन्थ को सुनकर सम्राट् अकबर अत्यन्त चमत्कृत हुआ और उसने मुक्तकण्ठ से इस ग्रन्थ की प्रशंसा की। राजा ने यह कहते हुए ग्रन्थ को लेखक के हाथों में दिया कि इसका सर्वत्र प्रचार-प्रसार हो । उपर्युक्त वृत्तान्त को समयसुन्दर ने स्वयं इस प्रकार लिखा है - संवति १६४२ प्रमिते श्रावणशुक्ला १३ दिनसन्ध्यायां 'कश्मीर' देश-विजय मुद्दिश्य श्री रामदासवाटिकायां कृत प्रथमप्रयाणेन श्रीअकबरपातिसाहिना जलाल (लुद्दी) दीनेन अभिजात साहिजात श्रीसिलेमसुरत्राणसामन्तमण्डलिकराजिविराजितराजसभायाम् अनेकविधवैयाकरणतार्किकविद्वत्तमभट्टसमक्षम् अस्मद्गुरुवरान् युगप्रधानखरतर भट्टारकश्रीजिनचन्द्रसूरीश्वरान् आचार्य श्रीजिनसिंहसूरिप्रमुखकृतमुखसुमुखशिष्यव्रातसपरिकरान् असमानसन्मानबहुमानदानपूर्व समाहूय अयमष्ट लक्षार्थी-ग्रन्थो मत्पार्श्वाद् वाचयांचक्रेऽवक्रेण चेतसा। ततस्तदर्थ श्रवणसमुत्पन्नप्रभूतनूतनप्रमोदातिरेकेण संजातचित्तचमत्कारेण बहुप्रकारेण श्रीसाहिना बहुप्रशंसापूर्वं पठतां पाठ्यताँ सर्वत्र विस्तार्यतांसिद्धिरस्तु इत्युक्त्वा च स्वहस्तेन गृहीत्वा एतत् पुस्तकं ममहस्ते दत्वा प्रमाणीकृतोऽयं ग्रन्थः । उपर्युक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ वि०सं० १६४९, श्रावण शुक्ला १३ के पूर्व ही पूर्ण हो गया था। वैसे कवि ने ग्रन्थ- समाप्ति की तिथि का उल्लेख ग्रन्थ के अन्त में निम्नांकित रूप में किया है- श्री विक्रमनृपवर्षात् समये रसजलधिरागसोम (१६४६) मिते । कवि ने इस ग्रन्थ का नाम 'अष्टलक्ष्मी' के अतिरिक्त 'अर्थ-रत्नावली' भी रखा | आज साहित्य - जगत् में ये दोनों ही नाम प्रचलित हैं । इस ग्रन्थ का कलेवर काफी १. अनेकार्थ-: - रत्नमञ्जूषा, पृष्ठ ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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