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समयसुन्दर का जीवन-वृत्त
लाधउ जतीए लाग, मूंडी नई मांहइ लीधा।
हुंती जितरी हुंस, तीए तितराहिज कीधा ॥१ बारह वर्ष के इस भयंकर दुर्भिक्ष में देश के अनेक धर्मानुरागी धनी व्यक्तियों ने मुक्त हाथ से अकाल-पीड़ितों की सहायता की। उनकी कवि ने भारी अनुमोदना की है। कवि के उल्लेखानुसार शान्तिदास, सागर, कुंवरजी, करमसी, रतन, वछराज, ऊदो, जीवउ सुखीयो, वीरजी, मनजी केशव, सूरजी शाह, जिनसागर, हाथी शाह (शाह लटूको), सादुलट्टककउ, प्रतापसी, वर्द्धमान, तिलोकसी भाई, प्रतापसी साह, सामलदास, जयतारणिउ, श्री माली, थिरादरे आदि अनेक पुरुषों ने रोटी, कपड़ा, मकान इत्यादि का अकालपीड़ितों को अनुपम दान देकर आत्मौपौम्य का विस्तार और पुण्य का उपार्जन किया था।
भीषण अकाल पड़ने के कारण ललितप्रभसूरि, शालिवाडीयउसूरि, जसवंतसूरि, केसवसूरि आदि अनेक आचार्य मृत्यु को प्राप्त हो गये; परन्तु कविवर अकाल से सतत संघर्ष करते रहे। यहाँ तक कि उन्होंने अपने शास्त्र, परिधान और पात्र तक का भी विक्रय कर करके इस अकाल का सामना किया। यह दशा उस समय सर्वसाधारण की थी। अतः समयसुन्दर ने भी शिष्यों के मोह में अकरणीय कार्य किये, किन्तु वे ही शिष्य कवि को छोड़कर दूर चले गये। दुष्काल, वृद्धपन एवं शिष्यों द्वारा उपेक्षा या त्याग - इन तीनों से समयसुन्दर विचलित हो उठे। वे स्पष्ट कहते हैं -
चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह परहउ छांडउ। पुस्तक, पाना बेचि, जिम तिम अम्हनई जीवाडउ।
वस्त्र, पात्र बेचि करी, केतौक तो काल काढीयउ॥२ इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि के जीवन के अन्तिम क्षण अनेक संघर्षों से सन्त्रस्त रहे। एक ओर पराधीनता, दूसरी ओर दयनीय वृद्धावस्था और तीसरी ओर दुष्काल का सामना -इन तीनों का असम सामना कवि को अन्तिम जीवन में करना पड़ा था। १५. क्रियोद्धार
क्रियोद्धार का अभिप्राय है – 'आचार-संस्कार'। जिस प्रकार भाषा में किसी प्रकार की असंगति, भद्दापन आदि दूर करके उसे शिष्ट और सुन्दर रूप देने पर भाषा का संस्कार होता है, उसी प्रकार आचरण आदि का परिष्करण तथा संशोधन करना क्रियोद्धार कहलाता है। मनुष्य परिस्थिति या परिवेश के कारण अपने जीवन-मूल्यों एवं शास्त्रमर्यादानुकूल आचरण से पतित हो जाता है। जब वह अपने आदर्श के प्रति निष्ठा को सुदृढ़ बनाते हुए पुनः आगमानुकूल आचरण करने का निश्चय करता है, तो यही क्रियोद्धार होता १. वही (१०) २. सत्यासिया-दुष्काल-वर्णन-छत्तीसी (१३)
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