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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ___ जो शिष्य लोकलज्जा की भी परवाह नहीं करते, ऐसी परिस्थिति में अपना कृत कर्म-फल समझ कर ही मुझे आत्मतोष धारण करना चाहिए। ११.३ दुष्काल का सामना - प्रकृति सदय होकर हमें मुक्त हाथ से धन-धान्यादि देती है। जब तक प्रकृति सदय है, तभी तक हमारी सम्पन्नता है। हमारा अस्तित्व ही प्रकृति की कृपा पर निर्भर है। महोपाध्याय समयसुन्दर के समय में गुजरात प्रदेश को प्रकृति के एक भारी प्रकोप का सामना करना पड़ा। दुष्काल इस प्रकोप का ही तो अपर नाम है। इस बुरे वक्त की मार कवि पर भी बहुत अधिक पड़ी। इस अकाल ने कवि के जीवन में एक अजीब मोड़ ला दिया। उनके जीवन को करुण और दयनीय बना दिया। कविवर विचलित हो उठे।
यह अकाल गोसाई तुलसीदास के गोलोकवास के सिर्फ सात वर्ष बाद हुआ था। विक्रम संवत् १६८७ का यह दुष्काल अन्य दुष्कालों से ज्यादा भयंकर था। समयसुन्दर के पूर्व भी वीर संवत् ९८० में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा था, जिसका वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है कि इस अकाल में बहुत सारे साधुओं का नाश हुआ और बहुश्रुतों का विच्छेद हुआ। समयसुन्दर ने वि० सं० १६८७ के दुष्काल का आंखों देखा हाल वर्णित किया है। समसामयिक एवं भुक्तभोगी होने के कारण इस दुष्काल सम्बन्धित रचनाएँ अत्यन्त मार्मिक बन पड़ी हैं । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार कवि ने इस अकाल का बड़ा ही हृदय-द्रावक और जीवन्त वर्णन किया है।
__ प्राणि-जगत् में अन्न ही मुख्य है। अन्न ही मनुष्यों का प्राण है और अन्न में ही सब प्रतिष्ठित हैं। दुर्भिक्ष में अन्न का अभाव हो गया। अन्न के बिना मनुष्य कैसे जी सकता है? सारे प्रदेश में त्राहि-त्राहि मच गई। इस अन्न को प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति भिखारी बना हुआ था। पेट की भूख को शांत करने के लिए सभी ने अपनी प्रतिष्ठा और आदर्शों को एक किनारे रख दिया। जो धनवान् व्यक्ति थे, वे भी केवल शालितूष (भूसी) की रोटी बना-बनाकर खाते हैं। कविवर समयसुन्दर स्वयं कहते हैं
अध पा न लहे अन्न भला नर थया भिखारी, मूकी दीधउ मान, पेट पिण भरइ न भारी। पमाडियाना पान, केइ वगरौ नइं कांटी, खावे खेजड़ छोड, शालितूस सबला बांटी।
अन्नकण चुणइ के अइं ठि में, पीयइ अइंठि पुसली भरी॥ १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, गुरु दुःखितवचनम्, पृष्ठ ४१७-४१९ २. समाचारी-शतक ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, भूमिका, पृष्ठ ७ ४. सत्यासिया-दुष्काल-वर्णन-छत्तीसी (८)
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