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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व देखकर जैनसंघ ने आपको गणि, वाचक/वाचनाचार्य, उपाध्याय, महोपाध्याय आदि विशिष्ट पद प्रदान कर आपका सम्मान किया था। महोपाध्याय जैसा श्रेष्ठ पद वास्तव में उनके महान् व्यक्तित्व का द्योतक है।
यात्रा शिक्षा का एक माध्यम है। यात्रा में पद-यात्रा का अपना महत्त्व है। समयसुन्दर ने भारत के विभिन्न अंचलों में पद-यात्राएँ कीं। वे पक्षी की तरह उन्मुक्त विहारी थे। उन्होंने अनेक तीर्थ-यात्राएँ भी की। वे जिस तीर्थ में गये, वहाँ के तीर्थाधिपतियों के चरणों में उन्होंने स्तोत्र-स्तवन रूप सुमन चढ़ाये, जो उनकी आस्था के आयाम थे।
महोपाध्याय समयसुन्दर के जीवन के अन्तिम क्षण संघर्षों से सन्त्रस्त रहे। उन्हें संवत् १६८७ के भयंकर दुष्काल का सामना करना पड़ा, हर्षनन्दन नामक शिष्य की परवशता को स्वीकार करनी पड़ी। समयसुन्दर ने अपने शिष्यों का माता-पिता की तरह पालन-पोषण किया, किन्तु शिष्य वृद्धावस्था में उनका परित्याग करके चले गये। वृद्धावस्था के कष्टों में शिष्यों में सेवा-भावना का अभाव देखकर उन्हें निराश तथा हतोत्साह होकर कहना पड़ा कि जो शिष्य गुरु की श्रद्धा-भक्ति से वैयावृत्य-सेवा नहीं करते, उन शिष्यों से क्या प्रयोजन है? ऐसे शिष्य तो निरर्थक हैं, भारभूत हैं।
भीषण दुष्काल में समयसुन्दर को शास्त्रमर्यादा से प्रतिकूल आचरण भी करना पड़ा, किन्तु दुष्काल से विमुक्त होने पर उन्होंने श्रमण-जीवन के उच्च मूल्यों के आदर्शों का पुन: वरण किया तथा इसी उद्देश्य से उन्होंने 'क्रियोद्धार' भी किया। इस प्रकार भावी परम्परा के लिए उन्होंने आचारगत एक आदर्श की भूमिका छोड़ दी।
___महोपाध्याय समयसुन्दर की भारतीय आचारगत साहित्य को महान् देन रही है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका व्यक्तित्व जितना गौरवपूर्ण है, उतना ही प्रेरक भी। उनका ज्ञान-गाम्भीर्य सागर की भांति था। समयसुन्दर केवल ज्ञानी ही नहीं, अपितु भक्त एवं कर्मशील भी थे। उनमें जितनी विद्वत्ता थी, उतनी ही ऋजुता भी। उनका हृदय श्रद्धा
और भक्ति से अभिभूत था। अखिल आदर्शों और आदर्श-पुरुषों के प्रति उनकी भक्तिप्रवणता अगाध थी। ज्ञान के साथ भक्ति का समागम हो जाने से उनके व्यक्तित्व का सौन्दर्य और भी निखर उठा था। जैन धर्म में हिन्दी भाषान्तर्गत भक्ति-सुवासित इतना विशाल साहित्य समयसुन्दर से पूर्व किसी ने भी नहीं लिखा। मीरा की-सी अनुपम भक्ति का दर्शन यदि किसी जैन कवि की रचनाओं में करना हो, तो उनके लिए समयसुन्दर का भक्तिपरक साहित्य बेजोड़ है। वस्तुतः ज्ञान एवं विद्वत्ता जहाँ उनके बाह्य व्यक्तित्व को प्रकाशित करती है, वहीं भक्ति उनके अन्त: व्यक्तित्व को।
समयसुन्दर आचार-पक्ष को भी उतना ही महत्त्व देते थे, जितना ज्ञान-पक्ष को। आचार-शून्य ज्ञानी चन्दन का भार ढोने वाला गर्दभवत् है। वह केवल भार ढोता है, चन्दन की सुगन्ध का उसे कोई पता नहीं है। सत्यत: जिस व्यक्तित्व में ज्ञान, भक्ति और
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