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समयसुन्दर का जीवन-वृत्त
तत्पश्चात् कवि की रचना 'श्री जिनसिंहसूरि-सपादाष्टक' से ज्ञात होता है कि सम्राट अकबर को जैन धर्म का विशिष्ट बोध पाने की इच्छा हुई। अतः इस उद्देश्य से मन्त्री कर्मचन्द्र ने श्रीजिनचन्द्रसूरि का भयंकर ग्रीष्मऋतु में आना कष्टकर जान, उनके मूर्धन्य शिष्य वाचक महिमराज को निमन्त्रण रूप विज्ञप्तिपत्र देकर जिनचन्द्रसूरि के समीप भेजा। श्री जिनचन्द्रसूरि ने महिमराज को हमारे कवि आदि छ: विद्वान् मुनियों के साथ वि० सं० १६४७ में लाहौर भेजा। कवि के उल्लेखानुसार वे सिरोही, जालोर, रिणी, सरसापुर, पीरोजपुर आदि मार्गवर्ती क्षेत्रों में पादस्पर्श करते हुए लाहौर पहुँचे। इस लम्बी पदयात्रा में कवि ने कई राजमहल, किले, प्राचीन इमारतें, सुन्दरनगर, नदियाँ, बाग-बगीचे, तीर्थ आदि दर्शनीय स्थल देखे-ऐसा संकेत कवि ने 'श्री जिनसिंहसूरि-सपादाष्टक' में किया
लाहौर में इनका अत्यधिक अभिनन्दन तथा स्वागत हुआ। इन विद्वान् मुनियों की आर्षवाणी ने सम्राट अकबर और जहांगीर को बहुत प्रभावित किया, जिससे उन दोनों की इनके प्रति श्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती गई। कवि समयसुन्दर की 'अष्टलक्षी' कृति के अनुसार वि० सं० १६४९, श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को काश्मीर-विजय के उद्देश्य से अकबर ने प्रयाण कर राजा श्री रामदास की वाटिका में विश्राम ग्रहण किया, जहाँ कवि ने 'राजा नो ददते सौख्यम्' इस आठ अक्षर में बने वाक्य का १०,२२,४०७ अर्थ करके अपने अभूतपूर्व ग्रन्थ को पढ़कर सुनाया। उत्तरवर्ती कवियों के संकेतों के अनुसार अकबर तथा उपस्थित विद्वत्परिषद ने इस अद्वितीय ग्रन्थ की मुक्तकंठ से प्रशंसा को। 'कर्मचन्द्रवंश-प्रबन्ध' के अनुसार काश्मीर विजय कर लाहौर वापस आने पर अकबर के अनुरोध पर महिमराज को 'आचार्य' पद और कवि समयसुन्दर को 'वाचक' पद से सम्मानित किया गया।
___ 'स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तव' तथा 'दादा श्री जिनकुशलसूरि-गुरोष्टकम् रचना से जानकारी मिलती है कि कवि वि० सं० १६५१ में 'गडालय' गये और दादा गुरुदेव के तीर्थ का मंगल दर्शन प्राप्त किया। छह राग-छत्तीस रागिणी नामगर्भित श्री जिनचन्द्रसूरि
१. द्रष्टव्य - वही, पृष्ठ ३९०-३९३ २. अनेकार्थरत्नमंजूषा - अष्टलक्षार्थी, पृष्ठ ५५ ३. द्रष्टव्य -(क) राजसोम कृत महोपाध्याय श्री समयसुन्दर गीतम्,
(ख) देवीदास कृत महोपाध्याय समयसुन्दरजी गीतम्, (ग) वादी हर्षनन्दन कृत समयसुन्दर उपाध्यायानां गीतम्,
- नलदवदन्ती-रास, परिशिष्ट ई, पृ० १३२-१३८ ४. द्रष्टव्य – समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, पृष्ठ १८४-१८५ ५. वही, पृष्ठ ३४९-३५०
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