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________________ ३८६ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व रडवड़ता गलीए मूआरे, मडा पड्या ठाम ठांम। गलि मांहे थइ गन्दगी रे चै कुण नांखण दाम ॥ - चम्पक श्रेष्ठी-चौपाई (२.६.१३) आम्हा साम्हा कटक आव्या चडी, फोजइ फोज अडी। वगतर नइ जीन साल, सुभटे पहिर्या तत्काल। माथइ धर्या टोप, सुभट चड्या सबल कोप, पांचे हथियार बांध्या, तीरे तीर सांध्या, अमल पाणि कीधा, भाजणरा सुंस लीधा। घोड़े घाली पाखर, जाणे आडा आया भाखर, जागइ कीया गज, उपरि फरहरइ धज, हमामे दीघी घाई, सूरवीर आया धाई, रणतूर वागइ, ते पिणि सिंधु (मइ) डारा गइ। ठाकुर वपु कारइ, वडवडा बापांरा विरुद सम्भारइ । छूटइ नालि, निपट थोड़ी विचाली, वहइ गोला लोक ल्यइ ओला, छूटइ कुहक बांध, कायरांरा पडइ प्राण, काबिली मीर, नांखई तीर,, मारइ भालारां बिच्चविधिं लागइ, बगतर भेदीनइ विच्चाविच्च लागइ, खडगांरी, खडाखडि वागी, भडाभडी गर्दभिल्लरी फोज भागी, सबल लीक लागी। हूँतउ जे सेनानी ते तउ धुरथी थयो कानी, जे हूंतउ कोटवाल, ते तड नासउ ततकाल, जे हूंतउ फोजदार, मितणरइ माथे पड़ी मार, जे हूंत वागिया ते पिण भाजी (गी) गया अभागिया, जे हूंता मुहता ते नासी घरे पहुता, जे हूंता चउरासीया तीए दांते त्री (तृ) णां लीया, जे हूंता खवास तीए मूकी जीवारी आस, जे हूंता कायर, तिणनइ सांभरइ आपणी बायर । जे चडता बाहर ते हथयार छोड़ी थया काहर, जे ढोलरइ ढमकइ मिलता, ते गया पासइ टलता, जे बांधता मोटी पाघडी, ते ऊभा न रह्या एका घडी, जे हूंता एकएकडा तिणरे नाम दिया बेकडा, जे माथइ धरता आंकडा, ते मुहडा कीया आंकडा, जे वणा (जा) वता सारंगी वांकी, तीए तउ रणभूमिका पण पाकी, जे बांधता बिहूं पासे कटारी, तीयां नइ नासतां भूमि भारी, जे पहिरता लांबा साडा, तीए नासिते कोडि कीया पवाडा। गर्दभिल्ल नाठउ, बोल घणउ माठउ, गढमहि जई पइठउ, चिंता करइ बैठउ, पोलि ताला अड्या, कालिकाचार्यना कटक चहुं दीसी विटी पड्या॥ -कालिकाचार्य-कथा ३.३ प्रसाद-गुण जो गुण चित्त में शीघ्र व्याप्त हो जाय, उसे 'प्रसाद' कहते हैं। यह गुण समस्त रसों एवं समस्त रचनाओं में रह सकता है। सुनते ही जिनका अर्थ प्रतीत हो जाय, ऐसे सरल और सुबोध पद प्रसाद-गुण के व्यंजक होते हैं। समयसुन्दर की रचनाओं में इस १. (क) शुष्कन्धनाग्निवत्स्वच्छजलवत् सहसैव यः। व्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः॥-काव्यप्रकाश (८.७०-७१) (ख) चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्कन्धनमिवानलः। स प्रसादः समस्तेषु र सेषु र चनासु च । शब्दास्तव्यञ्जका अर्थबोधकाः श्रुतिमात्रतः॥ - साहित्यदर्पण (८.७-८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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