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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
अईओ नन्दन नन्दना, नन्द नन्दना; साह वच्छराज के नन्दना। अइओ चन्द चन्दना, चन्द चन्दना; वचन अमीरस चन्दना।। अइओ फन्द फन्दना, फन्द फन्दना; नहिं माया मोह फन्दना। अहओ कन्द कन्दना, कन्द कदना, दुख दारिद्र विकन्दना॥ अइओ इन्द्र इन्द्रना, इन्द इन्दना; जिनसागरसूरि इन्दना। अइओ वन्द वन्दना, वन्द वन्दना; समयसुन्दर कहइ वन्दना॥
-जिनसागरसूरिगीतानि (५.१-३) हंस कहइ हूँ न रहूँ परवश, संबल द्यै मुझ साथ। समयसुन्दर कहइ ए परमारथ, हंस नहीं किण हाथ ॥
___ -काया-जीव गीतम् (४) एक करूँ अरदास, प्रीति सम्भालउ पाछ ली। तुम्ह बिण खिण न रहाय, क्यूँ जीवइ जलविण माछली॥
- श्री स्थूलिभद्रगीतम् (१) मन ना मनोरथ सवि मन मां रह्या रे।
- श्री स्थूलिभद्रगीतम् (४) ३.२ ओज-गुण
चित्त की दीप्ति – जिसमें चित्त का विस्तार होता है, चित्त आवेशित हो जाता है, ओज कहलाती है। वीर, बीभत्स और रौद्र रस में इस गुण का क्रमशः आधिक्य होता है। ओजगुणमूलक पद को सुनने वाले अथवा पढ़ने वाले के चित्त में आवेश, साहस आदि का संचार होता है। क वर्ग आदि के पहले और तीसरे वर्गों का दूसरे और चौथे वर्गों के साथ क्रमशः योग, 'र' का वर्णों के ऊपर और नीचे अधिक प्रयोग, ट, ठ, ड, ढ की अधिकता तथा लम्बे समास ओज गुण व्यंजक हैं। यथा -
टक्कि हार तोड़ती, मटक्कि अंग मोडती, छटक्कि वीण छोड़ती, लटक्कि मुँहि लोड़ति, जपत्ति राजु वाउरी।
- नेमिनाथ सवैया (१७)
१. (क) दीप्त्मात्म विस्तृतेर्हेतुरोजो वीररसस्थितौ।
बीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च ॥- काव्यप्रकाश (८.६९) (ख) ओजश्चित्तस्य विस्ताररूपं दीप्तत्वमुच्यते।
वीरबीभत्सरौद्रेषु क्रमेणाधिक्यमस्य तु ॥ - साहित्यदर्पण (८.४-५) २. काव्य-कल्पद्रुम, प्रथम भाग, पृष्ठ ३४०
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