________________
समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
३८१ २.१३ अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कार
जिसमें किसी की प्रशंसा आदि करने के लिए प्रस्तुत की चर्चा न करके केवल अप्रस्तुत की चर्चा की जाती है और उसी से प्रस्तुत का बोध कराया जाता है, वह अप्रस्तुत-अलङ्कार कहलाता है। उदाहरण के लिए -
साठी चोखा सूपडइ, छडतां ऊजला थायइ रे। रूपइया खरा आगिमइ, घाल्यां कसमल जायइ रे॥
- सीताराम-चौपाई (१.२.१८) इसमें वेगवती द्वारा मुनि को कलंकित कर देने पर बाद में उसी के द्वारा निर्दोष घोषित कर देने पर साधु की स्वच्छता प्रस्तुत है, किन्तु कवि ने अप्रस्तुत साठी-चावल
और स्वर्ण-सिक्के की स्वच्छता का वर्णन कर साधु की स्वच्छता की ओर संकेत किया है। यहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आरोपण होने से अप्रस्तुत-प्रशंसा-अलङ्कार है। २.१४ विरोधाभासालङ्कार
विरोध न होने पर भी जहाँ विरोध-सा प्रतीत हो, वहाँ विरोधाभास-अलंकार होता है; जैसे -
प्रकृत्यापि विना नाथ, विग्रहं दूरतस्त्यजन्। केवलप्रत्ययेनैव, सिद्धि साधितवान् भवान् ।।
- श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् (१) इसमें व्याकरण के अनुसार विग्रह-प्रदर्शन पूर्वक प्रकृतिभूत शब्द के साथ प्रत्यय जोड़कर शब्द सिद्धि की जाती है, किन्तु पार्श्वनाथ ने प्रकृति और विग्रह के बिना ही सिद्धि (शब्दसिद्धि) की, यह व्याकरण शास्त्र की मर्यादा से विरूद्ध है। जब हम 'प्रकृति शब्द' का अर्थ माया-मोह, 'विग्रह' शब्द का अर्थ कलह और केवल प्रत्यय' का अर्थ केवलज्ञान, मान लेने पर किसी प्रकार का विरोध नहीं रहता है। अतः यहाँ विरोधाभासअलंकार है। २.१५ सन्देहालङ्कार
जहाँ किसी पदार्थ को देखकर संशय बना रहे और निश्चय न हो कि यह अमुक ही है, वहाँ सन्देह-अलङ्कार होता है। उदाहरणार्थ -- के देवी के किन्नरी, के विद्याधरि ।
___ सीताराम-चौपाई (१.७ से पूर्व दूहा ८) इसमें नारद ऋषि द्वारा भानुकुमार को सीता का चित्र प्रदान करने पर भानुकुमार उसके बारे में सन्देह करता है कि यह देवी है, या किनरी है या कोई विद्याधरी है। एक व्यक्ति के बारे में एक ही काल में अनेक विकल्प होने से सन्देह-अलङ्कार होता है। और भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org