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जाती है,
यथा
महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सहज सुख दुख संपजइ, परमेसर पिण करइ पक्षो रे । ते मन मांहे माणज्यउ, पुण्य पाप ना फल परतक्षो रे ॥
- गौतमपृच्छा - चौपाई (५.४) इसमें मानव-जीवन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होने से स्वभावोक्ति अलंकार है । पुनर्यथा -
बेड़ली मेरी री, तरइ नीर विचाल, अइमतउ रमइ बाल । मुनि बांधी माटी पाल, जल थम्यउ ततकाल । काचली मूकी विचाल, रिषि रामतियाल ॥ - श्री अइमत्ता ऋषि गीतम् (१)
२.१२ दृष्टान्तालङ्कार
जहाँ उपमेय, उपमान संबंधी दो पृथक् वाक्यों में धर्मों की भिन्नता होने पर भी बिम्ब- प्रतिबिम्ब आदि भावनाओं में समानता दिखाई गई हो, वहाँ दृष्टान्त - अलङ्कार की सिद्धि होती है। देखिये, कवि की दृष्टान्त - अलंकार योजना
सोनउ हो सुगंध ते त अति भलउ, एक सांख भर्यउ दूध । कनक मुद्रडी जवहर सुं जडी, जैन क्रिया मन सूध ॥
अतः
इसमें जैन- आचार के प्रति मानव मन के आकर्षण के तीन दृष्टान्त दिये गये हैं (क) सोने में सुगंधि, (ख) शंख में दूध और (ग) सोने की अंगूठी में जड़ित मणि । यहाँ दृष्टान्त अलङ्कार होता है । कतिपय अन्य उदाहरण भी प्रस्तुत हैं राम थकां बीजाउ, राजनउ नहीं अधिकार । सीह सादूलइ गूंजतइ, कुण बीजउ मिरगारि ॥
- सीताराम - चौपाई (२.५ से पूर्व दूहा २)
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गुण देखि राचइ सको, अवगुण राचइ न कोई रे । हार सको हियss धरइ, नेउर पायतलि होय रे ॥
• श्री जिनसिंहसूरि-गीतानि (४) सालियर नेमि सुहावइ रे सखियां, कालउ पणि गुण भरियउ रे लखियां | आंखि सोहइ नहीं अंजण पारवइ, कालउ मरिच कपूर नइ राखइ | काली कीकी करइ अजुवालउ, रक्षा करइ रूड़उ चंदलउ कालउ । कालउ कृष्ण वृन्दावनि सोहइ, सोल सहस गोपी मन मोहइ । नर-नारी सहु को घणुं तरसइ, कालउ मेह घटा करि वस्सइ । राजुल कहइ सखि स्युं करुं गोरइ, समयसुन्दर प्रभु मन मान्यउ मोरइ ।
- श्री नेमिनाथ गीतम् (१-६)
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