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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
कलिकषायकलंकमलावहं निरुवमाणकलाकमलावहं । अहिणुवामि तुमं समयालयं, जयइदीव समं समयालयं ॥
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राजुल नारि कहइ मृग नयणी, मृग कउ काउ म मानउ रे ॥
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- यमकबद्धप्राकृतभाषायां पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् (८)
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२.३ पुनरुक्ति - अलङ्कार
जहाँ भाव की रोचकता को बढ़ाने के लिए एक ही शब्द अनेक बार कहा जाए, वहाँ पुनरुक्ति- अलङ्कार होता है। विवेच्य साहित्य से कतिपय पद्य इसके उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं
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श्री नेमिनाथ गीतम् (२)
जय जय शब्द सुउच्चरे, अपछर आनन्दपूर । धम धम धमके घुघरी, बाजे वाजंत तूर ॥
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- चार प्रत्येक-बुद्ध चौपाई (३/१०/२) इस पद्य में भाव की रमणीयता के लिए 'जय जय' और 'धम धम' शब्द की पुनरावृत्ति हुई है । अतएव यहाँ पुनरुक्ति अलंकार कहा जाएगा। पुनर्यथा - नेलि नेमि नेमि नेमि जपत राजुल नारि हो । - श्री नेमि - राजुल गीतम् (१)
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२.४ पुनरुक्त-वदाभास- अलङ्कार
जब किसी काव्य में ऐसे शब्द हों जिनका अर्थ सामान्य दृष्टि से समान प्रतीत हों, किन्तु विशेष दृष्टि से समान न हों, तब पुनरुक्तवदाभास - अलङ्कार होता है। इस अलङ्कार हेतु निम्नांकित उदाहरण अवलोकनीय है -
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भूत प्रेत पिशाच वेताल वली, शाकिणी डाकिणी जाइ टली । छल छिद्र न लागइ को झउड़उ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ॥
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- श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्तवनम् (३) यहाँ भूत, प्रेत आदि के सामान्य भाषा में समानार्थक होने से पुनरुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु वस्तुत: इनके भिन्न-भिन्न होने से पुनरुक्ति नहीं है । और भी न पडइ दुरभिक्ष दुकाल कदा, शुभ वृष्टि सुभिक्ष सुगाल सदा । ततखिन तुम्हें अशुभ करम तोड़उ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ॥ - श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्तवनम् (६)
२.५ श्लेषालङ्कार
जहाँ पर एक ही शब्द के प्रसंग के अनुसार दो या दो से अधिक अर्थ निकलते हों, वहाँ श्लेष - अलङ्कार होता है। एक शब्द के अनेक अर्थों की अभिव्यक्ति करना कवि लिए सामान्य बात थी । 'राजा नो ददते सौख्यम्' इन अष्टाक्षरों के दस लक्षाधिक अर्थ
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