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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
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हो गया । नल ने भी इसी तरह जलते हुए सर्प को अग्नि से निकाला, पर सर्प ने उसे काट दिया, जिससे उसके आकार-प्रकार में विस्मयजनक विकृति आ गई थी । २
इस तरह हम देखते हैं कि कवि ने अपने काव्यों में अनेक कथानकों को लेकर अद्भुत रस की अच्छी सृष्टि की है।
१. ९ शान्त - रस
कविवर समयसुन्दर के साहित्य-प्रणयन के पार्श्वपक्ष में एक ही मनोवृत्ति दृष्टिगोचर होती है कि मनुष्य को सांसारिक विषय-भोगों से उदासीन बनाकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करना । इसी के फलस्वरूप कवि की सम्पूर्ण रचनाएँ शान्तरस में पर्यवसित होती हैं। रचनाओं के बीच का वातावरण श्रृंगारादि रसों से कितना भी ओतप्रोत क्यों न हो, उनका अन्त शान्त रस में होता है। अतः प्रत्येक रस का पर्यवसान अन्ततः शान्त में होने के कारण हम विवेच्य साहित्य का रसराजत्व 'शान्तरस' को प्रदान कर सकते हैं ।
'नाट्यशास्त्र' में 'शान्तस्तु प्रकृतिर्मतः ३ उद्घोषित कर शान्त की मूलरस के रूप में प्रतिष्ठा की गई है। इस रस के परिपाक से कष्ट, दरिद्रता, रोग, प्रियजनों के विरोध आदि के कारण मन में खेद तथा ग्लानि होती है । परिश्रमादि के निष्फल होने पर सद्गति हित हृदय में पश्चात्ताप होकर वैराग्य उत्पन्न होता है और वासना आदि मनोविकारों का शमन होता है ।
शान्त-रस के स्थायीभाव के संबंध में विविध मत हैं। कुछ विद्वान् शान्त का स्थायीभाव ‘शम्' कहते हैं, कुछ निर्वेद, कुछ तृष्णाक्षय, कुछ आत्मज्ञान और कुछ तत्त्वज्ञान आदि । वर्त्तमान में निर्वेद सर्वमान्य है। वैसे निर्वेद का इन सभी से कोई विशेष अन्तर नहीं है । अतः निर्वेद ही शान्त का स्थायीभाव है ।
समयसुन्दर के साहित्य में निर्वेदमूलक भावनाओं की अतिशय प्रधानता है । विस्तार भय से उनका संक्षिप्त प्रस्तुतिकरण ही अपेक्षित होगा। उनके काव्यों के निम्नलिखित प्रसंगों में शांतरस का परिपाक देखा जाता है
राजा मधु, राजा कनकरथ की पत्नी चन्द्राभा पर मुग्ध होकर उसे छलपूर्वक ले आता है। पत्नी वियोग से कनकप्रभ की हुई दयनीय दशा देख मधु को आत्म-ग्लानि हो उठती है ।
दत्तपुर में साध्वी द्वारा रानी पद्मावती को दिया गया उपदेश संसार की निस्सारता को
१. द्रष्टव्य - सिंहलसुत चौपाई (६.४-६)
२. द्रष्टव्य – नलदवदन्ती - रास (२.५)
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३. नाट्यशास्त्र (६८४)
४. द्रष्टव्य - शांब - प्रद्युम्न - चौपाई (ढाल ७)
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