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________________ समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व ३५७ काचित नारी इम कहइ, जय पामी घरि आवि। एक अस्त्री वीर भारिजा, मुझनइ विरुद कहावि॥ वीरों द्वारा अपनी रमणियों को प्रदत्त उत्तर भी उनके रोम-रोम में वीरोचित उत्साह का सर्जन करता है, जिससे उनमें वीररस की सिद्धि होती है ---- सुभट तिकेज सराहियइं, जे रण पहिलो भेलि। सेना भांजइ सत्रुनी, अणिए अणिए मेलि ॥ अरि करि दंत उपरि चडी, हणइ ऊपरि सिरदार। घड़ विण घा मारइ धसी, ते साचा झुझार ॥२ १.५.२ दानवीर दान के प्रसंगों में भी उत्साह गुण दृष्टिगत होता है। भगवान् नेमिनाथ से ढंढण ऋषि की प्रशंसा सुनकर कृष्ण प्रफुल्लित हुए। महल की ओर लौटते समय कृष्ण को ढंढण ऋषि के दर्शन हो जाते हैं। वे ऋषि को वन्दन करते हैं, जिसे देखकर भद्रक सेठ के मन में उन्हें दान देने की भावना उत्पन्न होती है। सेठ ने उन्हें मोदक दान दिया - त्रैलोक्यनाथ तीर्थंकर ताहरूं, श्री मुख करइ वखाणो जी। तूं धन्य तूं कृतपुण्य मोटो जती, जीवित जन्म प्रमाणो जी॥ कृष्ण नी मनियावट देखि करी, भद्रक नइ थयो भावो जी। सिंह केशरिया मादक सूझता, पड़िलाभ्या प्रस्तावो जी॥३ राम, सीता और लक्ष्मण जब दण्डकारण्य में निवास कर रहे थे, तब दो गगनगामी मुनि वहाँ पधारे। उनके दर्शनों से तीनों को आनन्द हुआ। उन्होंने मुनियों को वन्दना की और उन्हें पवित्र आहार-दान देकर स्वयं को कृतकृत्य किया – वंदना कीधी रे लखमण राम, बे कर जोड़ी ताम। आनन्द पाम्यो रे दरसण देखि, चंद चकोर विशेषि। सीता थइ रे रोमंच सरीर, सखर वहिरावी खीर। नारंग केला रे फणस खजूर, फासू दिया रे भरपूर ॥ 'सत्यासिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी' में अनेक दानवीरों का उल्लेख है। प्रस्तुत है, एक-दो दानवीरों की दानवीरता का चित्रण है - साबास शांतिदास, परघल अपणां गुरु पोष्या, पात्रा भरि भरपूर, साधनइ घणा संतोष्या। १. वही, (६.४. से पूर्व दूहा ९.११, १५) २. सीताराम-चौपाई (६.४ से पूर्व दूहा २४-२५) ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री ढंढण ऋषि गीतम् (५-६) ४. सीताराम-चौपाई (५.१.२, ४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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