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समयसुन्दर की भाषा
२९९ पार्श्व? उपसर्गहरं सम्यग्दृष्टीनां विघ्नोपशंमकर्तारम्। १ तथा पाशां पद्मावती वन्दे, पाशो स्या वामहस्ते अस्तीति अभ्रादित्वात मत्वर्थीये अप्रत्यये पाशा तां पाशां। किंविशिष्टं पाशां? काम्यधनुमुक्तां काम्यः कमनीयो घनः शरीरं तेन करणभूतेन मुद् हर्षोर्थात् द्रष्टनराणां यस्याः सकाशात् सा काम्यघनमुत्कादिव्यवषुषा लोकानां हर्षजनका इत्यर्थः तां २१ तथा 'विषधरविषनिर्नाशः' धरणेन्द्रं वन्दे अभिवादयामि, विषं पानीयं धरतीति विषधरां मेघं अर्थात्कमठासुरसंबंधी, तस्य विषं जलं निर्नाशयतीति निजफणरूपच्छत्रधरणेन वारयतीति विषधरविषनिर्नाशस्तं वि० । किंविशिष्टं धरणेन्द्र 'मंगलकल्लाणआवासं' अर्थः प्राग्वत्। अथवा मंगलकल्याण श्रेयस्करणप्रगुणा या आज्ञा भगवच्छाशनं तया आ समंतात् वासो भावना यस्य सः तं मं० कल्याणकारिभगवदाज्ञाभावितमानसमित्यर्थः ३१ इति अर्थत्रयकरणम्। अस्यां च गाथायां प्रथमायां जगद्वालभ्यकरं, सौभाग्यकरं, भूतादिनिग्रहकरं शूद्रोपद्रव द्रावणमिति (मित्यादि) यंत्राष्टकं, पार्श्वयक्षयक्षिण्यादिमन्त्राश्च सन्ति। इति प्रथमगाथार्थः॥१॥
समयसुन्दर की व्याख्यागत विशेषता का उल्लेख करते हुए महोपाध्याय विनयसागर लिखते हैं, 'काव्य, अलङ्कार, छन्द, आगम, स्तोत्र आदि प्रत्येक साहित्य पर कवि ने टीकाओं की रचना की है। .... इन टीका ग्रन्थों को देखने से यह तो निर्विवाद है कि टीकाकार का जिस प्रकार का पाण्डित्य, बहुश्रुतज्ञता और योग्यता होनी चाहिये, वह सब कवि में मौजूद है। .... कवि, प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ की अपेक्षा भी मूल काव्यकार के भावों की, अर्थगांभीर्य को सरस रस प्रवाहयुक्त प्रकट करने में सफल हुआ है। २.९ मिश्रित भाषा-शैली
प्रस्तुत शैली से हमारा अभिप्राय समयसुन्दर की उस शैली से है, जिसमें मुख्यतः दो भाषाओं का मिश्रण हो । समयसुन्दर ने ऐसे अनेक गीत लिखे हैं, जिनमें एक साथ दो अथवा उससे अधिक भाषाएँ प्रयुक्त हुई हैं। वस्तुतः उनका भाषा पर पूर्ण अधिकार था। दो भाषाओं में संयुक्तरूप में रचना करना बहुत कठिन होता है। समसंस्कृत और प्राकृत भाषा में रचना करना वैदग्ध्य का सूचक है। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी मिश्र भाषा में भी रचनाएँ लिखी हैं। सत्यत: कवि का भाषा कौशल इन रचनाओं से मुखरित होता है।
मिश्रित भाषा शैली में लिखित रचनाओं के प्रत्येक पद्य के प्रथम और तृतीय पाद एक भाषा में हैं और द्वितीय एवं चतुर्थ पाद अन्य भाषा में। उदाहरणार्थ कुछ पद्य प्रस्तुत हैं -
समप्राकृत-संस्कृत लसण्णाण-वित्राण-सत्राण मेहं,
कलाभिः कलाभिर्युतात्मीयदेहम्।
१. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, पृष्ठ ७९
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