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समयसुन्दर की भाषा
काली कीकी करइ अजुवालउ,
रक्षा करइ रुड़उ चन्दलउ कालउ । कालउ कृष्ण वृन्दावनि सोहइ,
सोल सहस गोपी मन मोहइ । नर नारी सहुको घणुं तरसइ,
कालउ मेह घटा करि वरसइ ॥ १
२.८ व्याख्यात्मक-शैली
किसी कठिन या दुरूह उक्ति, पद, वाक्य या विषय की अधिक बोधगम्य, सरल, सुगम रूप से समझाने के लिए अपनाई गई शैली ही व्याख्या शैली है । महोपाध्याय समयसुन्दर का टीका या व्याख्या - साहित्य इसी शैली में लिखित है । इस शैली में लिखने का प्रमुख लक्ष्य ही किसी जटिल वाक्य आदि से अर्थ का स्पष्टीकरण अथवा किसी विषय का कुछ विस्तार से वर्णन करना है।
समयसुन्दर सुप्रसिद्ध टीकाकार अथवा व्याख्याकार हैं। उनका टीका - साहित्य अत्यन्त समृद्ध है । उनकी उपलब्ध रचनाओं में २५ रचनाएँ टीका - साहित्य के अन्तर्गत हैं, जिनमें २३ टीकाएँ संस्कृत में हैं और २ टीकाएँ प्राचीन राजस्थानी में। वे इन टीकाओं में मूल पाठों का सरल व शीघ्रबोधगम्य अर्थ प्रस्तुत करते हैं । इसे वे कहीं दण्डान्वय और कहीं खण्डान्वय-पद्धति से प्रस्तुत करते हैं। खण्डान्वय-पद्धति ही अधिक प्रयुक्त हुई है। अनेक रचनाओं में तो वे बिना अन्वय किये व्याख्या करते हैं। इसके अतिरिक्त वे व्याकरण-शास्त्र के आधार पर शब्दों की व्युत्पत्ति, कभी - कभी किसी विशिष्ट शब्द की सिद्धि का निर्देशक 'सूत्र' और विशेष कठिन शब्दों के अर्थ के लिए किसी कोष का हवाला भी देते हैं । समासविग्रहपूर्वक शब्दार्थ बताते हुए व्याख्या करना 1 यह उनके टीका - साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति है । आवश्यकतानुसार अन्तरकथाओं एवं मूल ग्रन्थ अथवा पाठ के निर्माण के कारण आदि का भी संक्षिप्त उल्लेख कर देते हैं । आवश्यकता पड़े तो विवेच्य विषय की स्पष्टता या पुष्टि के लिए मान्य शास्त्रादि के उद्धरण भी प्रस्तुत करते हैं। किसी वाक्य, कथन आदि का वे अपनी बुद्धि से या अपने दृष्टिकोण से भी नया अर्थ उपस्थित करते हैं। साथ ही साथ टीका में कुछ नवीन विलक्षणता लाने के लिए शब्द के एकाधिक अर्थ भी लिख देते हैं। अधिकांशतः समयसुन्दर अतिप्रचलित शब्दों या वाक्यों की व्याख्या नहीं करते हैं । जहाँ मूल अति सरल एवं स्पष्टबोधगम्य है, वहाँ वे उसका संक्षिप्त भावार्थ मात्र लिख देते हैं ।
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समयसुन्दर व्याख्या में कथंभूतम् कथंभूता आदि कीदृशः कीदृशी, कीदृशं आदि प्रश्नसूचक संकेतों द्वारा निर्देश करते चलते हैं कि वे किस पद के विशेषणों की १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, पृष्ठ १२७, नेमिनाथ गीतम् (१-५)
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