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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कुम्हकार > कुंभार, यत्न > जतन्य, स्वधर्मी > साहमी,३ शंख > सांख
स्तुति > थुइ५ व्यंजन-लोपनृत्य - नृत्त
पितृ/पितु > पिउ 'स्' के लोप की प्रवृत्ति अधिकांशिक देखी जाती है। जैसे -
स्थानक > थानक७ स्तवन > तवन, स्थापना > थापना, स्नेह > नेह,१०
स्थूल > थूल'१ विचाराधीन भाषा में परिवर्तनशीलता स्थान-स्थान पर दृष्टिगत होती है। एक ही अर्थ में अनेक शब्दों के दो या दो से अधिक रूप मिलते हैं। इसमें न केवल ध्वनि परिवर्तन हैं, अपितु शब्द या पद में भी परिवर्तन के संकेत दिखाई पड़ते हैं। समयसुन्दर की हिन्दी भाषा में हुए परिवर्तनों की यहाँ बहुत विस्तृत चर्चा करती अशक्य है। अत: विस्तारभय से यहाँ उदाहरणार्थ उनके संख्यावाचक शब्दों को ही प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्हें उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रयोग किये हैं। प्रायः सभी संख्यावाचक शब्दों के एकाधिक रूप प्राप्त होते हैं। इन रूपों में तत्सम, तद्भव एवं देशज - सभी प्रकार के रूप पाये जाते हैं - एक, पढम, पडिमा, प्रथम, पहिलउ, तृतीय, त्रिण्ह, त्रि, त्रय, त्रीजइ, त्रिण, त्रिहु, पहिलं, पहिल, इकि, इक, एकइ, पहिलइ, त्रीजउ, त्रै, त्रिहुं, त्रीजी, त्रिक, त्रीजो, त्रीजें, पिहुलउ, एकल, पहली, पहिला आदि। त्रण, तिणि, तीजै, तीजइ, तीजी, तीजउ। बे, बेउ, बीजा, बीजी, बजउ, दुयं, बीजो, चउ, च्यार, च्यारि, च्यारे, चउथा, चतुर्, बीजी, दो, बि, बीजइ, बिहुँ, दुग, दोय, चतुर, चत्त, चत्तारि, चारि, चउथउ, दोऊँ, द्वितीय, दोइ।
चउथइ, चतुर्थ, चार, चिहुँ, चौथी, चउथु,
चौ, चारे। १. वही, पद्मावती आराधना (१६) २. वही, नेमिनाथ गीतम् (१) ३. वही, ज्ञानपंचमी वृहत्स्तवनम् (१९) ४. वही, ज्ञानपंचमी वृहत्स्तवनम् (८) ५. वही, ज्ञानपंचमी वृहत्स्तवनम् (१४) ६. वही, नेमिनाथ फाग (४) ७. श्री घंघाणी तीर्थ स्तवनम् (१) ८. ज्ञानपंचमीवृहत्स्तवनम् (१४) ९. वही (१६) १०. नेमिनाथ गीतम् (४) ११. पुण्य छत्तीसी (१९)
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